Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 754
________________ नवम अध्याय अंजलिपुडे ठिच्चा कुड्डाइविवज्जणेण समपायं । ३ पडसुद्धे भूमिति असणं ठिदिभोयणं णाम ||' [ मूलाचार गा. ३५, ३४ ] अत्रेयं टीकोक्ता विशेषव्याख्या लिख्यते - 'समपादाञ्जलिपुटाभ्यां न सर्वं एकभक्तकालस्त्रिमुहूर्तमात्रोऽपि विशिष्यते किन्तु भोजनं मुनेर्विशिष्यते । तेन त्रिमुहूर्त कालमध्ये यदा यदा भुङ्क्ते तदा तदा समपादं कृत्वाञ्जलि - पुटेन भुञ्जीत । यदि पुनर्भोजनक्रियायां प्रारब्धायां समपादो न विशिष्यते अञ्जलिपुटं च न विशिष्यते हस्तप्रक्षालने कृतेऽपि तदानीं जानूपरिव्यतिक्रमो योऽयमन्तरायः पठितः स न स्यात् । नाभेरधो निर्गमनं योऽन्तरायः सोऽपि स्यात् । अतो ज्ञायते त्रिमुहूर्तमध्ये एकत्र भोजनक्रियां प्रारम्य केनचित् कारणान्तरेण हस्ती प्रक्षाल्य मौनाम्यत्र गच्छेद् भोजनाय यदि पुनः सोऽन्तरायो भुञ्जानस्यैकत्र भवतीति मन्यते जानूव्यतिक्रमविशेषणमनर्थक' स्यात् । एवं विशेषणमुपादीयेत । समपादयोर्मनागपि चलितयोरन्तरायः स्यात् । नाभेरधो निर्गमनं दूरतएव न संभवतीति । अन्तरायपरिहारार्थमनर्थकं ग्रहणं स्यात् । तथा पादेन किञ्चिद्ग्रहणमित्येवमादीन्यन्तरायख्याकानि सूत्राणि अनर्थकानि स्युः । तथाञ्जलिपुटं यदि न भिद्यते करेण किंचिद् ग्रहणमन्तरायस्य विशेषणमनर्थकं स्यात् । गृह्णातु वा मा वा अञ्जलिपुटभेदेनान्तरायः स्यादित्येवमुच्यते । तथा जान्वधः परामर्शः सोऽप्यन्तरायस्य विशेषणं न स्यात् । एवमन्येऽप्यन्तरायाः न स्युरिति ॥ ९२ ॥ ९ ६९७ स्वरूप दो गाथाओंसे पृथक-पृथक कहा है । और टीकाकारने अपनी टीकामें विस्तारसे प्रकाश डाला है वह यहाँ लिखा जाता है । पहले स्थिति भोजनका स्वरूप कहा है- जिस भूमि-प्रदेशपर आहार लेनेवाला खड़ा हो, जिस भूमि- प्रदेशपर आहार देनेवाला खड़ा हो और उन दोनोंके बीच का जो भूमि प्रदेश है जिसपर जूठन गिरती है ये तीनों भूमि- प्रदेश जीव हिंसा आदिसे रहित होने चाहिए । ऐसे परिशुद्ध भूमि प्रदेशपर भीत आदिका सहारा न लेते हुए दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखते हुए खड़े होकर अपने हाथोंकी अंजलि बनाकर जो भोजन किया जाता है उसे स्थिति भोजन नामक व्रत कहते हैं । एक भोजनका काल तीन मुहूर्त है । किन्तु साधु तीन मुहूर्त तक समपाद होकर अंजलिपुटके साथ खड़ा नहीं रहता । इसका सम्बन्ध भोजनके साथ है । अतः तीन मुहूर्त कालमें जब साधु भोजन करता है तब दोनों पैरोंको बराबर रखकर अंजलिपुटसे भोजन करता है। यदि समपाद और अंजुलिपुट भोजनके विशेषण न हों तो भोजनकी क्रिया प्रारम्भ होनेपर हाथ धो लेनेपर जो जानुपरिव्यतिक्रम और नाभिअधोनिर्गमन नामक अन्तराय कहा है वे नहीं हो सकते। इससे ज्ञात होता है कि तीन मुहूर्त के भीतर एक जगह भोजनकी क्रिया प्रारम्भ करनेपर हाथ धोनेपर किसी कारणवश भोजनके लिए मुनि मौनपूर्वक अन्यत्र जाता है तभी उक्त दोनों अन्तराय हो सकते हैं । यदि यह अन्तराय एक ही स्थानपर भोजन करते हुए होता है ऐसा मानते हो तो जानूपरिव्यतिक्रम - अर्थात् घुटने प्रमाण ऊँची किसी वस्तुको लांघकर जाना - विशेषण व्यर्थ होता है । तब ऐसा कहना चाहिए था यदि दोनों समपाद किंचित् भी चलित हो जायें तो भोजनमें अन्तराय होता है । इसी तरह नाभिसे नीचे होकर निकलना अन्तराय भी भोजन करते समय सम्भव नहीं है । अतः उसका भी ग्रहण व्यर्थ होता है । तथा 'पैरसे कुछ ग्रहण करना' यह अन्तराय भी नहीं बनता । तथा यदि भोजन के समय अंजुलिपुट नहीं छूटता तो 'हाथसे कुछ ग्रहण करना' यह अन्तराय नहीं बनता। ऐसी स्थिति में तो हाथसे कुछ ग्रहण करे या न करे, अंजुलिपुटके छूटने से अन्तराय होता है इतना ही कहना चाहिए था । इसी तरह 'जानुसे नीचे छूना' यह अन्तराय भी नहीं बनता इसी तरह अन्य भी अन्तराय नहीं बनते । सिद्धभक्ति करनेसे पहले यदि इस प्रकार के ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only ६ १२ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794