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धर्मामृत (अनगार)
जेसि होज्ज जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं । सत्तट्ठभवे गंतुं ते वि य पार्वति णिव्वाणं ॥'
[ आराधनासार गा. १०८ - १०९ ] ॥ ९९ ॥ अथोक्तलक्षणस्य यतिधर्मस्य जिनागमोद्धृतत्वेनाविसंवादित्वाच्छ्रद्धानगोचरीकृतस्य ऽभ्युदयनि यसफल संपादकत्वमाह
शश्वदनुष्टाने -
७०२
इदं सुरुचयो जिनप्रवचनाम्बुधेरुद्धृतं
सदा य उपयुञ्जते श्रमणधर्मसारामृतम् । शिवास्पदमुपासितक्रमयमाः शिवाशाघरैः
समाधिविधुतांहसः कतिपयैर्भवैर्यान्ति ते ॥१००॥
उपासितक्रमयमाः - आराधितचरणयुगला: 1 अथवा उपासितः सेवितः क्रम आनुपूर्वी यमश्च
संयमो येषां । शिवाशाधरैः - मुमुक्षुभिः ।
इति भद्रम् ॥१००॥
इत्याशाधरदृब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां नवमोऽध्यायः ॥
अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं पञ्चचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि शतानि । अंकतः ४४५ ।
नवाध्यायामेतां श्रमणवृषसर्वस्वविषयां
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निबन्धप्रव्यक्तामनवरतमालोचयति यः । स सद्वृत्तोदच कखित क लिक ज्ञो क्षयसुखं अयत्यक्षार्थाशाधरपरमदूरं शिवपदम् ॥
इत्याशाधरदृब्धायां स्वोपज्ञधर्मामृतपञ्जिकायां प्रथमो यतिस्कन्धः
समाप्तः ।
क्रियाएँ कृतिकर्म नामक अंग बाह्य श्रुतमें वर्णित हैं वहींसे उनका वर्णन इस शास्त्रमें भी किया गया है । नित्य नैमित्तिक क्रियाएँ मुनि सर्वदेश से नियमित रूपसे करते हैं और श्रावक अपने पदके अनुसार करता है। मुनियोंके इस शास्त्रमें जो क्रियाएँ कही गयी हैं वे सब केवल मुनियोंके लिए ही कही गयीं ऐसा मानकर श्रावकोंको उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि श्रावक दशामें अभ्यास करनेसे ही तो मुनिपद धारण करनेपर उनका पालन किया. जा सकता है || ९९ ॥
आगे कहते हैं कि इस ग्रन्थ में जो मुनिधर्मका वर्णन किया है वह जिनागम से लेकर ही किया है इसलिए उसमें कोई विवाद आदि नहीं है वह प्रमाण है । इसलिए उसपर पूर्ण श्रद्धा रखकर सदा पालन करनेसे अभ्युदय और मोक्ष की प्राप्ति होती है
जिनागमरूपी समुद्रसे निकाले गये इस मुनिधर्मके साररूप अमृतका जो निर्मल सम्यग्दृष्टि सदा सेवन करते हैं, मोक्षकी आशा रखनेवाले श्रमण और इन्द्रादि उनके चरण युगलोंकी आराधना करते हैं । अथवा क्रमपूर्वक संयमकी आराधना करनेवाले वे निमल
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