Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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anwar
नवम अध्याय
६९५ 'दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि ।
चरिया हि सरायाणं जिणिदपूजोवएसो य ।।' [प्रवचनसार ३१४८] ॥८८॥ अथ महाव्रतविहीनस्य केवलेनैव लिङ्गेन दोषविशुद्धिर्न स्यादिति दृष्टान्तेन स्पष्टयतिमहावतादृते दोषो न जीवस्य विशोध्यते ।
वसनस्य यथा मलः ॥८९॥ स्पष्टम् ॥८९॥ अथ लिङ्गयुक्तस्य व्रतं कषायविशुद्धये स्यादिति निदर्शनेन दृढयति
मृद्यन्त्रकेण तुष इव दलिते लिङ्गग्रहेण गार्हस्थ्ये ।
मुशलेन कणे कुण्डक इव नरि शोध्यो व्रतेन हि कषायः ॥१०॥ कणे-कलमादिधान्यंशे । कुण्डक:-अन्तर्वेष्टनमलः । शोध्यः-शोधयितुं शक्यः ॥९०॥ जातिमें जन्मे हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको जिनलिंग धारण कराया जाता है, निन्दनीय पुरुषों और बालकोंको नहीं। विद्वानोंसे पूजनीय जिनमुद्रा पतित जनोंको नहीं देना चाहिए। सत्पुरुषोंके योग्य रत्नमालाको कुत्तेके गले में नहीं पहनाया जाता। पूजनीय जिनलिंग कोमलमति बालकको नहीं दिया जाता। उत्तम बैलके योग्य भारको वहन करनेमें बछड़ेको नहीं लगाया जाता । शायद कोई कहें कि मुमुक्षओंको दीक्षा देना आदि काय विरुद्ध पड़ता है क्योंकि जो मुमुक्षु हैं उन्हें इन बातोंसे क्या प्रयोजन । उसे तो मात्र आत्महितमें ही लगना चाहिए । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो मुमुक्षु मुनिपद धारण करके भी कषायका लेश जीवित होनेसे शुद्धोपयोगकी भूमिकापर आरोहण करने में असमर्थ होते हैं वे शुद्धोपयोगकी भूमिकाके पास में निवास करनेवाले शुभोपयोगी भी मुनि होते हैं क्योंकि शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थ समवाय है। अतः शुभोपयोगियोंके भी धर्मका सद्भाव होता है। शुभोपयोगी मुनि दीक्षा दान आदि करते हैं । कहा है-दूसरोंपर अनुग्रह करनेकी इच्छापूर्वक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके उपदेशमें प्रवृत्ति. शिष्योंके संग्रह में प्रवृत्ति. उनके पोषणमें प्रवृत्ति और जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश ये शुभोपयोगी श्रमणोंकी चर्या हैं। किन्तु शुभोपयोगी श्रमण जो भी प्रवृत्ति करता है वह सर्वथा संयमके अविरोधपूर्वक ही करता है क्योंकि प्रवृत्ति संयमके लिए ही की जाती है ।।८।।
___ आगे कहते हैं कि जो महाव्रतोंका आचरण नहीं करता उसके दोषोंकी विशुद्धि केवल जिनलिंग धारणसे नहीं होती
जैसे, जलके बिना केवल खारी मिट्टीसे वस्त्रका मैल दूर नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रतका पालन किये बिना केवल बाह्य लिंगसे अर्थात् नग्न रहने, केशलोंच करने आदिसे
होते ।।८९॥ ___किन्तु जैसे केवल वाह्य चिह्न धारण करनेसे दोषोंकी विशुद्धि नहीं होती, वैसे ही बाह्य लिंगके विना केवल महाव्रतसे भी दोषोंकी विशुद्धि नहीं होती। किन्तु लिंगसे युक्त व्रतसे ही दोषोंकी विशुद्धि होती है, यह आगे दृष्टान्त द्वारा कहते हैं
__ जैसे मिट्टीसे बने यन्त्र-विशेषसे जब धानके ऊपरका छिलका दूर कर दिया जाता है तब उसके भीतरकी पतली झिल्लीको मूसलसे छड़कर दूर किया जाता है । उसी तरह व्रतको १. 'दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि ।
चरिया हि सरागाणं जिणिदपूजोवदेसो य ॥'-प्रवचनसार, २४८ गा.।
जीवके रागादि दोष
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