Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 745
________________ ६८८ धर्मामृत ( अनगार) . ज्येष्ठता-मातापितृगृहस्थोपाध्यायायिकादिभ्यो महत्त्वमनुष्ठानेन वा श्रेष्ठत्वम् ॥८०॥ मासैकवासिता-त्रिंशदहोरात्रमेकत्र ग्रामादी वसति तद्धवस्तदवतेः । एकत्र हि चिरावस्थाने उदा ३ हाराक्षमत्वं क्षेत्रप्रतिबद्धता शातगुरुतालसता सौकुमायंभावना ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः स्युरिति मूलाराधना टीकायाम् । तट्टिपणके तु योगग्रहणादौ योगावसाने च तस्मिन् स्थाने मासमात्रं तिष्ठतीति मासं नाम नवमः स्थितिकल्पो व्याख्यातः । उक्तं च 'पडिबंधो लहुयत्तं ण जणुवयारो ण देसविण्णाणं । णाणादीण अबुद्धी दोसा अविहारपक्खम्मि ॥' [ ] योगश्चेत्यादि-वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानम् । स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा ९ क्षितिरिति तदा भ्रमणे हि महानसंयमः । वृष्टया शीतवातपातेन चात्मविराधना। पतेद्वा वाप्यादिषु, स्थाणु कण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नर्जलेन कर्दमेन वा बाध्यते । इति विशत्यधिकदिवसशतमेकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । वक्रजड़ हैं । अतः मैथुनका साक्षात् निषेध न करने पर यह जानते हुए भी कि परिग्रह में मैथुन भी आता है, वक्र होनेसे पराई स्त्रीका सेवन कर लेते और पूछने पर कह देते कि यह हमारी परिग्रह नहीं है। इसलिए भगवान् ऋषभ और महावीरने पंचयाम धमकी स्थापना की, किन्त मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके साध ऋज प्राज्ञ थे। अतः परिग्रहका निषेध कर देनेपर प्राज्ञ (बुद्धिमान् विद्वान् ) होनेसे उपदेश मात्रसे ही समस्त हेय उपादेयको समझ लेते थे। अतः उन्होंने विचार किया कि विना ग्रहण किये स्त्रीको नहीं भोगा जा सकता अतः मैथुनका सेवन भी त्याज्य है। इस प्रकार मैथुनको परिग्रहमें अन्तर्भूत करके चतुर्याम धर्मका उपदेश मध्यके बाईस तीर्थंकरोंने दिया । सातवाँ कल्प है पुरुषकी ज्येष्ठता । माता, पिता, गृहस्थ, उपाध्याय आदिसे महाव्रती ज्येष्ठ होता है या आचार्य सबसे ज्येष्ठ होते हैं आठवाँ स्थितिकल्प है प्रतिक्रमण । दोष लगनेपर उसका शोधन करना प्रतिक्रमण है। इसका पहले कथन कर आये हैं। जैसे प्रथम और अन्तिम तीर्थकर तथा शेष बाईस तीर्थंकरोंके समयके साधुओंको लक्ष्य में रखकर श्वेताम्बरीय साहित्यमें पंचयाम और चतुर्याम धर्मका भेद कहा है, वैसा ही भेद प्रतिक्रमणको लेकर भी है और मूलाचारमें भी उसका कथन उसी आधार पर किया गया है । लिखा है कि प्रथम और अन्तिम जिनका धर्म सप्रतिक्रमण है अर्थात् दोष लगे या न लगे, प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थंकरोंके समयके साधु दोष लगनेपर ही प्रतिक्रमण करते थे क्योंकि वे ऋजुप्राज्ञ थे-सरल और बुद्धिमान थे । परन्तु प्रथमजिनके साधु ऋजजड और अन्तिम जिनके साधु वक्रजड़ हैं। तथा-बृहत्कल्प भाष्य (गाथा ६४२५) में भी यही कहा है-इसकी टीकामें लिखा है कि प्रथम और अन्तिम जिनके तीर्थमें सप्रतिक्रमण धर्म है-दोनों समय नियमसे छह आवश्यक करने होते हैं। क्योंकि उनके साधु प्रमाद बहुल होनेसे शठ होते हैं। किन्तु मध्यम जिनोंके तीर्थ में उस प्रकारका अपराध होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान है क्योंकि उनके साधु प्रमादी नहीं हैं, शठ नहीं है। अस्तु । १. 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराण' ॥-मूलाचार ७१२९ २. 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स इ पच्छिमस्सय जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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