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नवम अध्याय
६८७
स्त्रीभिर्मेथुनसंज्ञया बाध्यमानाभिः पुत्रार्थिनीभिर्वा बलात्तस्य स्वगृहे प्रवेशनमुपभोगार्थम् । विप्रकीर्णरत्नसुवर्णादिकस्यान्यैः स्वयं चोरितस्य संयत आयात इति तत्र तच्चोरिकाध्यारोपणम् । राजाऽस्य विश्वस्तो राज्यं नाशयिष्यतीति क्रुद्धरमात्यादिभिर्वधबन्धादिकं च स्यात् । तथाऽऽहाराविशुद्धिः क्षीरादिविकृतिसेवाऽनय॑रत्नादेर्लोभाच्चोरणं वरस्त्रीदर्शनाद् रागोद्रेको लोकोत्तरविभूतिदर्शनाच्च तन्निदानकरणं संभवेत् । एतद्दोषाभावेऽन्यत्रभोजनासंभवे च श्रुतविच्छेदपरिहारार्थ राजपिण्डोऽपि न प्रतिषिध्यते । कृतिकर्म-षडावश्यकानष्ठानं गरूणां विनयकरणं वा । व्रतारोपणयोग्यत्वम-अचेलतायां स्थित-औद्देशिकादि-पिण्डत्यागोद्यतो गुरुभक्तिमान विनीतश्च व्रतारोपणयोग्यः स्यात् । उक्तं च
'आचेलक्के य ठिदो उद्देसादीय परिहरदि दोसे । गुरुभत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु॥[ ]
ग्रहण किया है। उसके भोजनादिको राजपिण्ड कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-आहार, अनाहार और उपधि । खाद्य आदिके भेदसे आहारके चार प्रकार हैं। चटाई, पट्टा वगैरह अनाहार है, पीछी वगैरह उपधि है। इनके ग्रहण करने में अनेक दोष हैं-प्रथम राजभवनमें मन्त्री, श्रेष्ठी, कार्यवाहक आदि बराबर आते-जाते रहते हैं, भिक्षाके लिए राजभवनमें प्रविष्ट भिक्षको उनके आने-जानेसे रुकावट हो सकती है। उनके कारण साधको रुकना पड़ सकता है। हाथी, घोड़ोंके आने-जानेसे भूमि शोधकर नहीं चल सकता । नंगे साधुको देखकर और उसे अमंगल मानकर कोई बुरा व्यवहार कर सकता है, कोई उसे चोर भी समझ सकता है। क्योंकि राजकुलसे यदि कोई चोरी हो जाये तो लोग साधुको उसकी चोरी लगा सकते हैं। कामवेदनासे पीड़ित स्त्रियाँ बलात् साधुको उपभोगके लिए रोक सकती हैं। राजासे प्राप्त सुस्वादु भोजनके लोभसे साधु अनेषणीय भोजन भी ग्रहण कर सकता है। इत्यादि अनेक दोष हैं। किन्तु जहाँ इस प्रकारके दोषोंकी सम्भावना न हो और अन्यत्र भोजन सम्भव न हो तो राजपिण्ड भी ग्राह्य हो सकता है। पाचवाँ स्थितिकल्प है कृतिकर्म । छह आवश्यकोंका पालनक गुरुजनोंकी विनय कृतिकर्म है। बृहत्कल्पभाष्य (गा. ६३९८-६४००) में कहा है कि चिरकालसे भी दीक्षित साध्वीको एक दिनके भी दीक्षित साधुकी विनय करना चाहिए। क्योंकि सभी तीर्थंकरोंके धर्म में पुरुषकी ही ज्येष्ठता है, धर्म के प्रणेता तीर्थंकर गणधर आदि पुरुष ही होते हैं। वे ही धर्मकी रक्षा करने में भी समर्थ हैं जो अचेल है, अपने उद्देश्यसे बनाये गये भोजनादिका तथा राजपिण्डका त्यागी है, गुरुभक्त और विनीत है वही व्रतारोपणके योग्य होता है । यह छठा स्थितिकल्प है।
बृहत्कल्प भाष्य (गा. ६४०२-७) में कहा है कि प्रथम तीर्थकर और अन्तिम तीर्थकरके धर्म में तो पाँच यम (महाव्रत) थे किन्त शेष बाईस तीर्थंकरोंका: उसमें मैथुन त्यागको परिग्रह त्यागमें ही ले लिया था। इसका कारण बताते हुए कहा है कि भगवान् ऋषभदेवके समयके साधु ऋजुजड़ थे। इसलिए यदि परिग्रहव्रतमें ही अन्तर्भाव करके मैथुन व्रतका साक्षात् उपदेश न दिया जाता तो वे जड होनेसे यह नहीं समझ सकते थे कि हमें मैथुन भी छोड़ना चाहिए। जब पृथक स्पष्ट रूपसे मैथुनका निषेध किया गया तो उन्होंने सरलतासे उसका त्याग कर दिया। भगवान महावीरके समयके साधु १. 'सव्वाहि संजतीहि कितिकम्मं संजताण कायव्वं ।
परिसूत्तरितो धम्मो सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि' ।।-बृ. कल्पभाष्य., ६३९९ गा.।
शा।
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