Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 700
________________ नवम अध्याय ६४३ प्रदोषः प्रत्यासनकाल: । प्रदोषोऽपराह्नस्तत्र भवः प्रादोषिक अपरालिक इत्यर्थः। आराध्य-विधिवद् विधाय । क्षमापयेत्-लव्या श्रुतभक्त्या निष्ठापयेदित्यर्थः ॥२॥ अथ स्वाध्यायानां ग्रहण-क्षमापण-कालेयत्तानिरूपणार्थमाह ग्राह्यः प्रगे द्विघटिकादूवं स प्राक्ततश्च मध्याह्न। क्षम्योऽपरालपूर्वापररात्रेष्वपि दिगेषेव ॥३।। ग्राह्यः-प्रतिष्ठाप्यः । प्रगे-प्रभाते । द्विघटिकात्-द्वयोघंटिकयोः समाहारो विघटिकं तस्मात् । ६ प्राक ततः-घटिकाद्वयात् पूर्व, घटिकाद्वयोने मध्याह्न सम्पन्ने सतीत्यर्थः । अपराल्लेत्यादि-अपराह्न घटिकाद्वयाधिकमध्याह्लादूवं प्रतिष्ठाप्यो घटिकाद्वयशेषे दिनान्ते निष्ठाप्यः। तथा घटिकाधिके प्रदोषे ग्राह्यो घटिकाद्वयहीनेऽर्धरात्रे निष्ठाप्यः । तथा घटिकाद्वयाधिकेऽर्धरात्रे ग्राह्यो द्विघटिकावशेषे निशान्ते क्षम्य इत्यर्थः ॥३॥ अथ स्वाध्यायं लक्षयित्वा विधिवत्तद्विधानस्य फलमाह सूत्रं गणधराद्युक्तं श्रुतं तद्वाचनादयः। स्वाध्यायः स कृतः काले मुक्त्यै द्रव्याविशुद्धितः ॥४॥ सूत्रमित्यादि । उक्तं च 'सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं अभिन्नदसपुविकथिदं च ।। तं पढिदुमसज्झाए ण य कप्पदि विरदि इत्थिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढि, असज्झाए । आराधणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती असग्गहत्थुदीओ। पच्चक्खाणावासय धम्मकहाओ य एरिसओ ॥' [ मूलाचार गा. २७७-२७९] ८ विशेषार्थ-आगममें स्वाध्यायके चार समय माने हैं-पूर्वाह्न, अपराल, पूर्व रात्रि और अपररात्रि। इन चार कालोंमें साधुको आलस्य त्यागकर स्वाध्याय करना चाहिए । स्वाध्यायके प्रारम्भमें लघु श्रुत भक्ति और लघु आचार्य भक्ति करना चाहिए। और समाप्तिपर लघु श्रुतभक्ति पढ़ना चाहिए ॥२॥ आगे स्वाध्यायके प्रारम्भ और समाप्तिके कालका प्रमाण बताते हैं प्रातःकाल सूर्योदयसे दो घड़ी दिन चढ़नेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए अर्थात् तीसरी घडी शरू होनेपर स्वाध्याय शुरू करना चाहिए और मध्याह्नमें दो घडी काल शेष रहनेपर समाप्त कर देना चाहिए । यही उपदेश अपराल, पूर्वरात्रि और अपररात्रिके भी सम्बन्धमें जानना। अर्थात् अपराह्न में मध्याह्नसे दो घड़ी काल बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए और दिनकी समाप्ति में दो घड़ी काल शेष रहनेपर समाप्त करना चाहिए। पूर्वरात्रिमें दिनकी समाप्तिसे दो घड़ी काल बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए और अर्धरात्रिमें दो घड़ी काल शेष रहनेपर समाप्त करना चाहिए। अपररात्रिमें आधी रातसे दो घड़ी काल बीतनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिए और रात्रि बीतनेमें दो घड़ी शेष रहनेपर समाप्त करना चाहिए ॥३॥ स्वाध्यायका लक्षण और विधिपूर्वक उसके करनेका फल कहते हैं गणधर आदिके द्वारा रचित शास्त्रको सूत्र कहते हैं। उसकी वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशको स्वाध्याय कहते हैं। योग्य कालमें द्रव्य आदिकी शुद्धिपूर्वक की गयी स्वाध्याय कर्मक्षयपूर्वक मोक्षके लिए होती है ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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