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नवम अध्याय
६८३
'गुणदोषाणां प्रथकः क्षपकस्य विशेषमालुलोचयिषोः।
अनुजोरालोचयितो दोषविशेष प्रकाशयति ॥[ ] दोषवामकः-व्रताद्यतीचारस्यान्तगूढस्य स बहिनिष्क्रामकः । उक्तं च
'ओजस्वी तेजस्वी वाग्मी च प्रथितकोतिराचार्यः।।
हरिरिव विक्रमसारो भवति समुत्पीलको नाम ॥' [ रहोऽभेत्ता-गोप्यदोषस्य रहस्यालोचितस्याप्रकाशकः । उक्तं च
'आलोचिताः कलङ्का यस्या यः पीततोयसंछायाः ।
न परिश्रवन्ति कथमपि स भवत्यपरिश्रवः सूरिः ।।' निर्वापक:-क्षुदादिदुःखोपशमकः । यथाह
'गम्भीरस्निग्धमधुरामतिहृद्यां श्रवःसुखाम् ।
निर्वापकः कथां कुर्यात् स्मृत्यानयनकारणम् ॥' [ ] ॥७९॥ पूर्वो में प्रतिपादित प्रायश्चित्तको श्रुत कहा है। कोई आचार्य समाधि लेना चाहते हैं किन्तु पैरोंमें चलनेकी शक्ति नहीं है, वे देशान्तरमें स्थित किसी प्रायश्चितवेदी अन्य आचार्यके पास अपने तुल्य ज्येष्ठ शिष्यको भेजकर और उसके मुखसे अपने दोषोंकी आलोचना कराकर उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्तको यदि स्वीकार करते हैं तो आज्ञा है। वही अशक्त आचार्य दोष लगनेपर वहीं रहते हुए पूर्वमें अवधारित प्रायश्चित यदि करते हैं वह धारणा है । बहत्तर पुरुषोंके स्वरूपको देखकर जो प्रायश्चित्त कहा जाता है वह जीत है। श्वे. टीकाकारों के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और व्यक्तिके दोषके अनुसार संहनन, सहनशीलता आदिमें कमी देखते हुए जो प्रायश्चित्त दिया जाय वह जीत है। इन पाँचों प्रकारके प्रायश्चित्तमें-से यदि आगम विद्यमान है तो आगमके अनुसार ही प्रायश्चित्त देना चाहिए। आगम न हो तो श्रुतके अनुसार प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस तरह क्रमिक ही प्रायश्चित्त देनेका विधान है। आचार्यको इस व्यवहारका ज्ञाता होना चाहिए । तथा आचार्यको समाधि लेने वालेकी सेवामें तत्पर होना चाहिए। जब वह बाहर जाये या बाहरसे अन्दर आये तो उसको हस्तावलम्ब देना चाहिए, उसकी वसतिका, संथरा, उपकरणकी सफाई करनी चाहिए । मलत्यागमें उसके लिए भक्तपानकी व्यवस्थामें सावधान रहना चाहिए। ये सब कार्य बड़े आदर-भक्तिसे करना चाहिए (भग. आ. ४५५-५७)। क्षपकको आचायके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करनी चाहिए। किन्तु क्षपक अपने दोषोंको कहते हुए सकुचाता है । उसे भय है कि मेरे दोष प्रकट होनेपर सब मेरा निरादर करेंगे या मेरी निन्दा करेंगे। ऐसे समयमें आयापायविद् आचार्य बड़ी कुशलतासे समझा-बुझाकर उसके गुण-दोषोंको प्रकट कराते हैं। (भग. आ. ४५९-४७३ गा.)। कोई-कोई क्षपक आलोचनाके गुण-दोषोंको जानते हुए भी अपने दोषोंको प्रकट करनेके लिए तैयार नहीं होता। तब उत्पीलक गुणके धारी आचार्य समझा-बुझाकर जबरन दोषोंको बाहर निकालते हैं। जैसे, माता बच्चेकी हितकारिणी होती है वह बच्चेके रोनेपर भी उसका मुख खोलकर दवा पिलाती है वैसे ही आचार्य भी दोषोंको निकालते हैं(भ. आ. ४७४-४८५ गा.)। जैसे तपा लोहा चारों ओरसे पानीको सोख लेता है वह पानीको बाहर नहीं निकालता। उसी तरह जो आचार्य क्षपकके दोषोंको सुनकर पचा जाते हैं, किसी
१. सस्थायाः मु. भ. कु. च.।
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