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धर्मामृत (अनगार )
व्यवहारपटुः - प्रायश्चित्तस्य ज्ञाता बहुशो दीयमानस्य द्रष्टा तत्प्रयोक्ता च । तद्वान् व्यवहारवान् ।
उक्तं च
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आगम एकादशाङ्गोक्तं प्रायश्चित्तं तदेव चतुर्दशपूर्वोक्तं श्रुतम् । उत्तमार्थोद्यत् आचार्यो जङ्घाबलपरिहीणः स्थानान्तर स्थितः सुस्थिताचार्यसमीपे स्वतुल्यं ज्येष्ठशिष्यं प्रेष्यं तन्मुखेन तस्याग्रे स्वदोषानालोच्य तन्निर्दिष्टं ९ प्रायश्चित्तं यच्चरति तदाज्ञेति व्यपदिश्यते । स एवासहायः सन् संजातदोषस्तत्रैव स्थितः पूर्वावधारितप्रायश्चित्तं यत्करोति सा धारणा नाम । द्वासप्ततिपुरुषजातस्वरूपमपेक्ष्य यदुक्तं प्रायश्चित्तं तज्जीत इत्युच्यते । संप्रत्याचार्या येन व्यवहरन्ति स प्रकारः । परिचारी - क्षपकशुश्रूषाकारी || ७८ ॥ गुणेत्यादि । उक्तं च
'पञ्चविधं व्यवहारं यो मनुते तत्त्वतः सविस्तारम् । कृतकारितोपलब्धप्रायश्चित्तस्तृतीयस्तु ॥' [ 'आगमश्च श्रुतं वाज्ञाधारणाजीत एव च । व्यवहारा भवन्त्येते निर्णयस्तत्र सूत्रतः ॥ [
नौ पूर्वका ज्ञाता हो, महाबुद्धिशाली हो, सागर की तरह गम्भीर हो, कल्प व्यवहारका ज्ञाता हो उसे आधारवान् कहते हैं, इस तरह आचार्यको शास्त्र समुद्रका पारगामी होना चाहिए । तीसरे प्रायश्चित्तके प्रयोग में कुशल अनुभवी होना चाहिए । प्रायश्चित्तको ही व्यवहार कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत । कहा है- 'जो पाँच प्रकारके व्यवहार या प्रायश्चित्तको यथार्थ रूपमें विस्तार से जानता है, जिसने बहुत से आचार्यको प्रायश्चित्त देते देखा है और स्वयं भी प्रायश्चित्त दिया है उसे व्यवहारी कहते हैं । व्यवहारके पाँच भेद हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत । इनका विस्तार से कथन सूत्रों में है । इसकी टीकामें अपराजित सूरिने लिखा है कि 'प्रायश्चित्तका कथन सबके सामने नहीं किया जाता । इसीलिए यहाँ उनका कथन नहीं किया है, ' । अपने इस कथन के समर्थनमें उन्होंने एक गाथा भी उद्धृत की है- जिसमें कहा है 'सभी श्रद्धालु पुरुषों को जिन वचन सुनना चाहिए । किन्तु छेद सूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका अर्थ सबके लिए जानने योग्य नहीं है ।' श्वेताम्बरीय सूत्रों में व्यवहारके इन पाँच प्रकारोंका कथन है । व्यवहार सूत्र में विस्तारसे कथन है । मुमुक्षुकी प्रवृत्ति - निवृत्तिको व्यवहार कहते हैं । आगमसे केवलज्ञान, मनःपर्यय, अवधि, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नौ पूर्व लिये जाते हैं । शेषको श्रुत कहते हैं । यद्यपि नव आदि पूर्व भी श्रुत हैं, किन्तु वे केवलज्ञानकी तरह अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषय में विशिष्ट ज्ञान कराते हैं इसलिए उन्हें आगममें लिया है। किन्तु पं. आशाधरजीने अपनी टीका में ग्यारह अंगों में प्रतिपादित प्रायश्चित्तको आगम और चौदह
१. पंचविहं ववहारं जो जाणइ तच्चदो सवित्थारं ।
बहुसो यदि कयपट्ठवणो ववहारवं होइ ||
आगम सुद आणा धारणा य जीदेहिं होंति ववहारा ।
एदेसि सवित्थारा परूवणा सुत्तणिद्दिट्ठा ॥ भ. आरा. ४४८-४९ गा.
२. सब्वेण वि जिणवयणं सोदव्वं सट्ठिदेण पुरिसेण ।
छेदसुदस्स हु अत्थो ण होदि सव्वेण णादव्वो ॥ ३. 'पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा आगमे, सुए । आणा, धारणा, जीए । - स्थानांग ५।२।४२१ सू. ।
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