________________
६८०
धर्मामृत (अनगार)
स्थिते: - निष्ठासौष्ठवस्य । कल्पाः - विशेषाः ॥ ७६ ॥
चार प्रकारकी कषायोंसे मुक्त है इस तरह छत्तीस गुणोंसे युक्त गुरु होता है । ये ५+९+५ +५+५+३+४= ३६ गुण होते हैं । दिगम्बर परम्परामें भी एकरूपता नहीं है । विभिन्न ग्रन्थकारोंने विभिन्न प्रकारसे छत्तीस गुण गिनाये हैं-ओचारवत्त्व आदि आठ गुण, दस स्थितिकल्प, बारह तप,छ आवश्यक ८ + १० +१२ + ६ = ३६ ये छत्तीस गुण होते हैं । पं. आशाधरजीने इसीके अनुसार ऊपर छत्तीस गुण गिनाये हैं । किन्तु भगवती आराधना की अपनी टीका में पं. आशाधरजीने उक्त गाथाके सम्बन्ध में लिखा है-भ. आ. के अनुसार छेत्तीस गुण इस प्रकार हैं-आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह प्रकारका तप, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ ये भगवती आराधनाकी संस्कृत टीकाके अनुसार छत्तीस गुण हैं । प्राकृत टीका में अट्ठाईस मूल गुण और आचारवत्त्व आदि आठ ये छत्तीस गुण हैं । अथवा दस आलोचनाके गुण, दस प्रायश्चित्तके गुण, दस स्थितिकल्प और छह जीतगुण ये छत्तीस गुण हैं। ऐसी स्थिति में भगवती आराधनामें सुनी गयी यह गाथा प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती है ।' भगवती आराधना पर विजयोदया टीकाके रचयिता अपराजित सूरिने इस गाथा पर टीका नहीं की है । अतः यह गाथा किसीने छत्तीस गुण गिनानेके लिए उद्धृत की है और वह मूल में सम्मिलित हो गयी है । इसमें जो दस स्थितिकल्पों और छह जीतगुणोंको आचार्यके गुणों में गिनाया है वह विचारणीय प्रतीत होता है ।
बोधपाहुडकी गाथा २ की संस्कृत टीकामें आचार्यके छत्तीस गुण इस प्रकार कहे हैंआचारवान् श्रुताधारी, प्रायश्चित्तदाता, गुण दोषका प्रवक्ता किन्तु दोषको प्रकट न करने वाला, अपरिस्रावी, साधुओंको सन्तोष देनेवाले निर्यापक, दिगम्बर वेषी, अनुद्दिष्ट भोजी अशय्यासनी, अराजभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुणी, प्रतिक्रमण करनेवाला, षट्मासयोगी द्विनिषद्याँवाला, बारहतप, छह आवश्यक, ये छत्तीस गुण आचार्यके हैं। इस तरह आचार्यके छत्तीस गुणोंमें विविध मत मिलते हैं ||७६ ||
१.
'आयारवमादीया अटूट्ठगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो ।
वारस तव छावासय छत्तीसगुणा मुणेयव्वा ॥' भ. आ. गा. ५२६ ।
२. ' षट्त्रिंशद्गुणा यथा-अष्टी ज्ञानाचारा, अष्टौ दर्शनाचाराश्च तपो द्वादशविधं पञ्चसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति संस्कृतटीकायाम् । प्राकृतटीकायां तु अष्टाविंशति मूलगुणाः आचारवत्त्वादयश्चाष्टौ इति षट्त्रिंशत् । यदि वा दस आलोचना गुणाः, दश प्रायश्चित्तगुणाः, दश स्थितिकल्पाः, षड् जीतगुणाश्चेति षट्त्रिं । एवं सति सूत्रेऽनुश्रूयमाणेयं गाथा प्रक्षिप्तैव लक्ष्यते ।'
३. 'आचारश्रुताधारः प्रायश्चित्तासनादिदः । आयापायकथी दोषाभाषकोऽस्राव कोऽपि च ॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च । दिगम्बर वेष्यनुद्दिष्टभोजी शय्यासनीति च ॥ अराजभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुणः । प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी तद्विनिषद्यकः ॥ द्विषट् तपास्तथा षट्चावश्यकानि गुणा गुरोः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
*
www.jainelibrary.org