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नवम अध्याय
६४५
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अथ विनयाधीतश्रुतस्य माहात्म्यमाह
श्रुतं विनयतोऽधीतं प्रमादादपि विस्मृतम् ।
प्रेत्योपतिष्ठतेऽनूनमावहत्यपि केवलम् ।।५।। प्रेत्य-भवान्तरे । उक्तं च
'विणएण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदै ।
तमुअवढादि परभवे केवलणाणं च आवहदि ।' [ मूलाचार गा. २८६ ] ॥५॥ अथ तत्त्वावबोधादिसाधनं विज्ञानं जिनशासन एवास्तीत्युपदिशति
तत्त्वबोधमनोरोधश्रेयोरागात्मशद्धयः।
मैत्रीद्योतश्च येन स्युस्तज्ज्ञानं जिनशासने ॥६॥ श्रेयोरागः-श्रेयसि चारित्रेऽनुरागः। आत्मशुद्धिः-आत्मनो जीवस्य शुद्धिः-रागाधुच्छित्तिः परिच्छित्तिश्च । तथा चावाचि
'जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं गाणं जिणसासणे ॥ जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएस रज्जदि । जेण मित्ति पभावेज्ज तं गाणं जिणसासणे॥' [ मूलाचार गा. २६७-६८]
१५ चौथेमें स्वाध्याय करे । इसी तरह रात्रिके चार भाग करके प्रथममें स्वाध्याय, दूसरेमें ध्यान, तीसरेमें शयन और चौथेमें स्वाध्याय करना चाहिए ॥४॥
विनयपूर्वक श्रुतके अध्ययन करनेका माहात्म्य बताते हैं
विनयपूर्वक पढ़ा हुआ श्रुत यदि प्रमादवश विस्मृत भी हो जाता है तो भी जन्मान्तर में पूराका पूरा उपस्थित हो जाता है और केवलज्ञानको उत्पन्न करता है ।।५।। विशेषार्थ
का विनयपूर्वक अध्ययन व्यर्थ नहीं जाता। यदि वह भूल भी जाये तो उसका संस्कार जन्मान्तरमें भी रहता है। और श्रुतज्ञानकी भावना ही केवलज्ञानके रूपमें प्रकट होती है । उसके बिना केवलज्ञान सम्भव नहीं है ।।५।
आगे कहते हैं कि तत्त्वबोध आदिका साधन विज्ञान जिनशासनमें ही हैं
जिसके द्वारा तत्त्वका बोध, मनका रोध, कल्याणकारी चारित्रमें अनुराग, आत्मशुद्धि और मैत्रीभावनाका प्रकाश होता है वह ज्ञान जिनशासनमें ही है ॥६॥
विशेषार्थ-तत्त्व तीन प्रकारका होता है-हेय, उपादेय और उपेक्षणीय । हेयकाछोड़ने योग्यका हेय रूपसे, उपादेयका-ग्रहण करने योग्यका उपादेय रूपसे और उपेक्षा करने योग्यका उपेक्षणीय रूपसे होनेवाले बोधको तत्त्वबोध या तत्त्वज्ञान कहते हैं। मन जिस समय ज्यों ही विषयोंकी ओर जावे उसी समय उसे उधर जानेसे रोकनेको या उस विषयका ही त्याग कर देनेको मनोरोध कहते हैं। कहा भी है_ 'यद्यदैव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदैव सहसा परित्यजेत् ।' अर्थात् जैसे ही जो विषय मनमें घुले उसे तत्काल छोड़ दे। ज्ञानके बाद जीवका कल्याणकारी है ज्ञानको आचरणके रूपमें उतारना। उसे ही चारित्र कहते हैं। उस कल्याणकारी चारित्रमें अनुरागको अर्थात् तन्मय हो जानेको श्रेयोराग कहते हैं। जिसमें 'मैं' इस प्रकारका अनुपचरित प्रत्यय होता है वही आत्मा है। उस आत्मासे रागादिको दूर करना आत्मशुद्धि है। मित्रके भावको मैत्री कहते हैं अर्थात् दूसरोंको किसी भी प्रकारका दुःख न हो ऐसी भावना मैत्री है। उस मैत्रीका
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