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नवम अध्याय
६७५
सा नन्दीश्वरपदकृतचैत्या त्वभिषेकवन्दनास्ति तथा।
मङ्गलगोचरमध्याह्नवन्दना योगयोजनोज्झनयोः॥६४॥ सा-नन्दीश्वरक्रिया। अभिषेकवन्दना-जिनस्नपनदिवसे वन्दना । उक्तं च
'अहिसेयवंदणा सिद्धचेदि पंचगुरुसंतिभत्तीहिं । कीरइ मंगलगोयर मज्झण्हियवंदणा होइ ॥' [
] ॥६४॥ अथ मंगलगोचरबृहत्प्रत्याख्यानविधिमाह
लात्वा बृहत्सिद्धयोगिस्तत्या मङ्गलगोचरे।
प्रत्याख्यानं बृहत्सूरिशान्तिभक्ती प्रयुञ्जताम् ॥६॥ प्रयुञ्जताम् । अत्र बहुवचननिर्देशः समिलित्वा कार्योऽयं विधिरिति बोधयति ॥६५॥ अथ वर्षायोगग्रहणमोक्षणविध्युपदेशार्थ श्लोकद्वयमाहततश्चतुर्दशीपूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती ।
१२ चतुर्दिक्षु परीत्याल्पाश्चैत्यभक्तीगुरुस्तुतिम् ॥६६॥ शान्तिभक्ति च कुर्वाणवर्षायोगस्तु गृह्यताम् ।
ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम् ॥६७॥ पूर्वरात्रे-प्रथमप्रहरीद्देशे। परीत्या-प्रदक्षिणया। अल्पा-लघ्वी। अर्थाच्चतस्रः । तद्यथायावन्ति जिनचैत्यानीत्यादिश्लोकं पठित्वा वृषभाजितस्वयंभूस्तवमुच्चार्य चैत्यभक्ति चूलिकां पठेदिति पूर्वदिक् चैत्यालयवन्दना । एवं दक्षिणादिदिक्षु त्रयेऽपि, नवरमुत्तरोत्तरी द्वी द्वौ स्वयंभूस्तवी प्रयोक्तव्यो । गुरुस्तुति- १८ पञ्चगुरुभक्तिम् ।।६६॥ पश्चाद्रात्री-पश्चिमयामोद्देशे ॥६७॥
ऊपर जो नन्दीश्वर क्रिया कही है वही क्रिया जिस दिन जिन भगवानका महाभिषेक हो, उस दिन करना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि नन्दीश्वर चैत्यभक्तिके स्थानमें केवल चैत्यभक्ति की जाती है । तथा वर्षायोगके ग्रहण और त्यागके समय भी यह अभिषेक वन्दना ही मंगलगोचर मध्याह्नवन्दना होती है ॥६४॥
आगे मंगलगोचर बृहत् प्रत्याख्यानकी विधि कहते हैं
मंगलगोचर क्रिया में बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् योगिभक्ति करके भक्त प्रत्याख्यानको ग्रहण करना चाहिए और फिर बृहत् आचार्यभक्ति और बृहत् शान्तिभक्ति करनी चाहिए। यह क्रिया आचार्यादि सबको मिलकर करनी चाहिए। इसीसे 'प्रयुञ्जताम्' इस बहुवचनका प्रयोग किया है ॥६५॥
आगे वर्षायोगके ग्रहण और त्यागकी विधि कहते हैं
भक्त प्रत्याख्यान ग्रहण करनेके पश्चात् आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशीकी रात्रिके प्रथम पहरमें पूर्व आदि चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रमसे लघु चैत्यभक्ति चार बार पढ़कर सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति करते हुए आचार्य आदि साधुओंको वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए। और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके पिछले पहरमें इसी विधिसे वर्षायोगको छोड़ना चाहिए ॥६६-६७॥
विशेषार्थ-चारों दिशाओंमें प्रदक्षिणा क्रमसे चैत्यभक्ति करनेकी विधि इस प्रकार है। पूर्व दिशाको मुख करके 'यावन्ति जिनचैत्यानि' इत्यादि श्लोक पढ़कर ऋषभदेव और अजितनाथकी स्वयंभू स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित चैत्यभक्ति पढ़ना चाहिये। ऐसा करने
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