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नवम अध्याय
६५३
अथ स्वाधीनतेत्यस्यार्थ व्यतिरेकमुखेन समर्थयते
नित्यं नारकवद्दीनः पराधीनस्तदेष न।
क्रमते लौकिकेऽप्यर्थे किमङ्गास्मिन्नलौकिके ॥१६॥ नित्यमित्यादि। उक्तं च-को नरकः परवशता।' इति । क्रमते-अप्रतिहतं प्रवर्तते उत्सहते वा। लौकिके-लोकविदिते स्नानभोजनादी । यल्लोके
'परार्थानुष्ठाने श्लथयति नृपं स्वार्थपरता . परित्यक्तस्वार्थो नियतमयथार्थः क्षितिपतिः । परार्थश्चेत् स्वार्थादभिमततरो हन्त परवान्
परायत्तः प्रीतेः कथमिव रसं वेत्ति पुरुषः ॥ [ अङ्ग-पुनः । अस्मिन्-प्रकृते सर्वज्ञाराधने ।।१६॥
अथ चतुर्दशभिः पद्यर्देववन्दनादिक्रियाणां प्रयोगानुपूर्वीमुपदेष्टुकामः प्रथमं तावद् व्युत्सर्गान्तक्रम- १२ प्रकाशनाय पञ्चश्लोकीमाचष्टे
श्रुतदृष्टयात्मनि स्तुत्यं पश्यन् गत्वा जिनालयम् ।
कृतद्रव्यादिशुद्धिस्तं प्रविश्य निसही गिरा ॥१७॥ श्रुतदृष्ट्या-परमागमचक्षुषा । आत्मनि-विश्वरूपे स्वचिद्रूपे । स्तुत्यं-भावरूपमर्हदादि । १७॥
चैत्यालोकोद्यदानन्दगलवाष्पस्त्रिरानतः।
परीत्य दर्शनस्तोत्रं वन्दनामुद्रया पठन् ॥१८॥ तब अज्ञानी भगवान्को दोष देता है, अपनेको नहीं देखता। भगवान् तो वीतरागी हैं । वे न किसीको कुछ देते हैं न लेते हैं। न वे स्तुतिसे प्रसन्न होते हैं और न निन्दासे नाराज । स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-'हे नाथ ! आप वीतराग हैं अतः आपको अपनी पूजासे प्रयोजन नहीं है । और वीतद्वेष हैं इसलिए निन्दासे प्रयोजन नहीं है। फिर भी आपके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापकी कालिमासे बचावे इसी लिए आपकी वन्दना करते हैं ॥१५||
कृतिकर्मके प्रथम अंग स्वाधीनताका व्यतिरेक मुखसे समर्थन करते हैं
पराधीन मनुष्य नारकीके समान सदा दीन रहता है। इसलिए वह लौकिक खानपान आदि कार्योंको करनेमें भी बे-रोक प्रवृत्त नहीं होता, तब सर्वज्ञकी आराधना जैसे अलौकिक कार्योंकी तो बात ही क्या है ? ॥१६॥
आगे ग्रन्थकार चौदह श्लोकोंके द्वारा देववन्दना आदि क्रियाओंको करनेका क्रम बतलाना चाहते हैं। अतः पहले पाँच श्लोकोंके द्वारा व्युत्सर्ग पर्यन्त क्रियाओंका क्रम बतलाते हैं
___आगमरूपी चक्षुसे अपने आत्मामें भावरूप अर्हन्त आदिका दर्शन करते हुए जिनालयको जावे । वहाँ जाकर द्रव्य क्षेत्र काल भावकी शुद्धिपूर्वक निःसही शब्दका उच्चारण करते हुए प्रवेश करे। जिनबिम्बके दर्शनसे उत्पन्न हुए आनन्दसे हर्षके आँसू बहाते हुए १. 'न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे ।
तथापि तव पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥'-स्वयंभू. स्तोत्र., ५७ श्लो.
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