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नवम अध्याय ततो देवगुरू स्तुत्वा ध्यानं वाराधनादि वा।
शास्त्रं जपं वाऽस्वाध्यायकालेऽभ्यसेदुपोषितः ॥३॥ स्पष्टम् ॥३५॥ अथाप्रतिपन्नोपवासस्य भिक्षोर्मध्याह्न कृत्यमाह
प्राणयात्राचिकीर्षायां प्रत्याख्य
न वा निष्ठाप्य विधिवद् भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयेत् ॥३६।। प्राणयात्राचिकीर्षायां-भोजनकरणेच्छायां जातायाम् । निष्ठाप्य-पूर्वदिने प्रतिपन्नं क्षमयित्वा। प्रतिष्ठयेत्-प्रत्याख्यानमुपोषितं वा यथासामर्थ्यमात्मनि स्थापयेत् ॥३६॥ अथ प्रत्याख्यानादिनिष्ठापनप्रतिष्ठापयोस्तत्प्रतिष्ठापनानन्तरमाचार्यवन्दनायाश्च प्रयोगविधिमाहहेयं लघ्व्या सिद्धभक्त्याशनादौ
प्रत्याख्यानाद्याशु चादेयमन्ते। सूरौ तादृग योगिभक्त्यग्रया तद्
ग्राह्यं वन्द्यः सूरिभक्त्या स लघ्व्या ॥३७॥ आदेयं-लव्या सिद्धभक्त्या प्रतिष्ठाप्यम् । आचार्या सन्निधाविदम् । अन्ते-प्रक्रमाद् भोजनस्यैव । सूरो-आचार्यसमीपे। तादग्योगिभक्त्यग्रया-लघुयोगिभक्त्यधिकया लहव्या सिद्धभक्त्या। उक्तं च
'सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुच्यते । लघ्व्यैव भोजनस्यादौ भोजनान्ते च गृह्यते ॥ सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते।
१८ लघ्व्या तु सूरिभक्त्यैव सूरिर्वन्द्योऽथ साधुना ॥' [ 1॥३७॥ उपवास करनेवाले साधुको पूर्वाद्धकालकी स्वाध्याय समाप्त होनेपर अस्वाध्यायके समयमें देव और गुरुकी वन्दना करके या तो ध्यान करना चाहिए, या चार आराधनाओंका अथवा अन्य किसी शास्त्रका अभ्यास करना चाहिए, या पंचनमस्कार मन्त्रका जप करना चाहिए ॥३५||
उपवास न करनेवाले साधुको मध्याह्नकालमें क्या करना चाहिए, यह बताते हैं
यदि भोजन करनेकी इच्छा हो तो पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण किया था उसकी धिपर्वक क्षमापणा करके शास्त्रोक्त विधानके अनसार भोजन करे। और भोजन करने के पश्चात पुनः अपनी शक्तिके अनसार प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करे ।।३६।।
आगे प्रत्याख्यान आदिकी समाप्ति और पुनः प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करनेकी तथा प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करने के अनन्तर आचार्यवन्दना करने की विधि कहते हैं
पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण किया था, भोजनके प्रारम्भमें लघु सिद्धभक्तिपूर्वक उसकी निष्ठापना या समाप्ति करके ही साधुको भोजन करना चाहिए और भोजनके समाप्त होते ही लघु सिद्धभक्तिपूर्वक पुनः प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करना चाहिए। किन्तु यदि आचार्य पासमें न हों तभी साधुको स्वयं प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करना चाहिए । आचार्यके होनेपर उनके सम्मुख लघु आचार्य भक्तिके द्वारा वन्दना करके फिर लघु सिद्ध भक्ति और लघु योगि भक्ति बोलकर प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करना चाहिए ॥३७॥
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