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धर्मामृत ( अनगार) अत्र पूर्वसूत्रेण सम्यक्त्वसहचारि ज्ञानमुत्तरसूत्रेण च चारित्रसहचारिज्ञानं सूत्रकारेणोपणितमवसेयम् ॥६॥
अथ साधोरपररात्रे स्वाध्यायप्रतिष्ठापननिष्ठापने प्रतिक्रमणविधानं रात्रियोगनिष्ठापनं च यथाक्रममवश्यकर्तव्यतयोपदिशति
क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया
लातं निशीथे घटिकाद्वयाधिके । स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिका
शेषे प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत् ॥७॥ क्लमं-शरीरग्लानिम् । नियम्य-निवर्त्य । क्षणयोगनिद्रया-योगः शुद्धचिद्रपे यथाशक्ति चिन्तानिरोधः । योगो निद्रव इन्द्रियात्ममनोमरुत्सूक्ष्मावस्थारूपत्वात् । योगश्चासौ निद्रा च योगनिद्रा । क्षणोऽत्र कालाल्पत्वम् । तच्चोत्कर्षतो घटिकाचतुष्टयमस्वाध्याययोग्यम् । क्षणभाविनी योगनिद्रा क्षणयोगनिद्रा तया। यदाहुः
'यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिताशीः क्लेशजालं समूलं
दहति निहितनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।।' [ आत्मानु., श्लो. २२५ ] बुद्धिमानोंके चित्तमें महत्त्व प्रकट करना मैत्रीद्योत है। ये सब सम्यग्ज्ञानके फल हैं। ऐसा सम्यग्ज्ञान जिनशासनमें ही मिलता है। जिन अर्थात् वीतराग सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तात्मक मतमें उसीको विज्ञान कहते हैं जिसकी परिणति उक्त पाँच रूपमें होती है। मूलाचारमें कहा है-'जिससे तत्त्वका-वस्तुकी यथार्थताका जानना होता है, जिससे मनका व्यापार रोका जाता है अर्थात् मनको अपने वशमें किया जाता है और जिससे आत्माको वीतराग बनाया जाता है वही ज्ञान जिनशासनमें प्रमाण है। जिसके द्वारा जीव राग, काम, क्रोध आदिसे विमुख होता है, जिससे अपने कल्याणमें लगता है और जिससे मैत्री भावसे प्रभावित होता है वही ज्ञान जिनशासनमें प्रमाण है ॥६॥
आगे कहते हैं कि साधुको रात्रिके पिछले भागमें स्वाध्यायकी स्थापना, फिर समाप्ति, फिर प्रतिक्रमण और अन्त में रात्रियोगका निष्ठापन ये कार्य क्रमानुसार अब चाहिए
- थोड़े समयकी योगनिद्रासे शारीरिक थकानको दूर करके अर्धरात्रिके बाद दो घड़ी । बीतनेपर प्रारम्भ की गयी स्वाध्यायको जब रात्रिके बीतनेमें दो घड़ी बाकी हों तो समाप्त करके प्रतिक्रमण करे, और उसके बाद रात्रियोगको पूर्ण कर दे ॥७॥
विशेषार्थ-साधु प्रतिदिन रात्रिमें रात्रियोगको धारण करते हैं। और प्रातः होनेपर उसे समाप्त कर देते हैं। पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें योगका अर्थ शुद्धोपयोग किया है। अर्थात् रात्रिमें उपयोगकी शुद्धताके लिए साधु रात्रियोग धारण करते हैं। उस रात्रियोगमें वे अधिकसे अधिक चार घड़ी सोते हैं जो स्वाध्यायके योग्य नहीं हैं । अर्थात् अर्धरात्रि होनेसे पहलेकी दो घड़ी और अर्धरात्रि होनेके बादकी दो घड़ी इन चार घटिकाओं में साधु निद्रा लेकर अपनी थकान दूर करते हैं। उनकी इस निद्राको योगनिद्रा कहा है। योग कहते हैं शुद्ध चिद्रूपमें यथाशक्ति चिन्ताके निरोधको। निद्रा भी योगके तुल्य है क्योंकि निद्रामें
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