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अष्टम अध्याय अथ वन्दनायोग्यं प्रदेशमुपदिशति
विविक्तः प्रासुकस्त्यक्तः संक्लेशक्लेशकारणैः ।
पुण्यो रम्यः सतां सेव्यः श्रेयो देशः समाधिचित् ।।८१॥ संक्लेशाः-रागद्वेषाद्याः। क्लेशा:-परीषहोपसर्गाः। पुण्य:--सिद्धक्षेत्रादिरूपः। रम्यःचित्तनिवृत्तिकरः । सा-मुमुक्षूणाम् । समाधिचित्-प्रशस्तध्यानवर्धकः । उक्तं च
'संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्तृणपांश्वादिदूषितः। विक्षोभको हृषीकाणां रूपगन्धरसादिभिः ।। परीषहकरो दंशशीतवातातपादिभिः । असंबद्धजनालापः सावद्यारम्भगहितः ।। आर्द्राभूतो मनोऽनिष्टः समाधाननिषूदकः । योऽशिष्टजनसंचारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ।। विविक्तः प्रासुकः सेव्यः समाधानविवर्धकः । देवर्जुदृष्टिसंपातजितो देवदक्षिणः ।। जनसंचारनिर्मुक्तो ग्राह्यो देशो निराकुलः ।
नासन्नो नातिदूरस्थः सर्वोपद्रवजितः ॥ [ अमि. श्रा. ८।३९-४२] ॥८१॥ अथ कृतिकर्मयोग्यं पीठमाचष्टे
आगे वन्दनाके योग्य देशको कहते हैं
वन्दनाके लिए उद्यत साधुको वन्दनाकी सिद्धिके लिए ऐसे प्रदेशको अपनाना चाहिए जो शुद्ध होनेके साथ अवांछनीय व्यक्तियोंसे रहित हो, निर्जन्तुक हो, संक्लेशके कारण रागद्वेष आदिसे तथा कष्टके कारण परीषह-उपसर्ग आदिसे रहित हो, सिद्धक्षेत्र आदि पुण्यभूमि हो, चित्तको शान्तिकारक हो, मुमुक्षुओंके द्वारा सेवनीय हो और प्रशस्त ध्यानको बढ़ानेवाला हो ।।८१॥
विशेषार्थ-अमितगति श्रावकाचार (८।३९-४३) में वन्दनाके योग्य देशका वर्णन कुछ विस्तारसे किया है। लिखा है-'जहाँ स्त्री-पुरुषोंकी भीड़ हो, साँप आदिके विलोंकी बहुतायत हो, घास-फूस-धूल आदि से दूषित हो, रूप-रस-गन्ध आदि के द्वारा इन्द्रियोंको क्षोभ करनेवाला हो, डाँस-मच्छर-शीत, वायु-घाम आदिसे परीषहकारक हो, जहाँ मनुष्योंका असम्बद्ध वार्तालाप चलता हो, जो पापयुक्त आरम्भसे निन्दनीय हो, गीला हो, मनके लिए अनिष्ट हो, चित्तकी शान्तिको नष्ट करनेवाला हो, जहाँ असभ्य जनोंका आवागमन हो ऐसे प्रदेशमें वन्दना नहीं करनी चाहिए। जो स्थान एकान्त हो, प्रासुक हो, सेवन
हो, समाधानको बढ़ानेवाला हो, जहाँ जिनबिम्ब आदिकी सीधी दृष्टि नहीं पड़ती हो, उसके दक्षिण ओर हो, मनुष्यों के आवागमन से रहित हो, न अतिनिकट हो
और न अतिदूर हो, समस्त प्रकारके उपद्रवोंसे रहित हो, ऐसा निराकुल देश अपनाने योग्य है' ॥८॥
आगे कृतिकर्म के योग्य पीठ बतलाते हैं
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