________________
.
६
अष्टम अध्याय
६१७ इतरेण नैमित्तिकेन । अभ्यासेन । कर्तरि ततीया ॥७७॥ अथ षडावश्यकशेषं संगृह्णन् कृतिकर्मसेवायां श्रेयोथिनं व्यापारयति
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति ।
विनयेन यथाजातः कृतिकर्मामलं भजेत् ॥७॥ योग्या:-समाधये प्रभवन्त्यः। यथाविहिता इत्यर्थः । तथैवोत्तरप्रबन्धेनानुपूर्वशो व्याख्यास्यन्ते । यथाजात:-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहचिन्ताव्यावृत्तः। संयमग्रहणक्षणे निर्ग्रन्थत्वेन पुनरुत्पादात् । कृतिकर्म- कृतेः पापकर्मछेदनस्य कर्म अनुष्ठानम् ॥७८॥ 'अनुविद्ध तथा जिसमें समस्त लोकालोकके आकार प्रतिबिम्बित हैं ऐसे समग्र द्रव्यपर्यायोंसे निबद्ध ज्ञानसे रमणीय कैवल्यको निर्वाणको प्राप्त करता है ।।७७॥
विशेषार्थ-जबतक साधु अभ्यास दशामें रहता है तबतक दोषोंकी विशुद्धिके लिए उसे नित्य और नैमित्तिक कर्म करने होते हैं। किन्तु ये कर्म कर्मके लिए नहीं किये जाते, अकर्मा होनेके लिए किये जाते हैं। इसीलिए इन नित्य-नैमित्तिक कर्मोको करते हुए मन, वचन और कायके समग्र व्यवहारको निगृहीत करके मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुण अवलम्बन लेना होता है। यदि ऐसा न हो तो कोरे क्रियाकाण्डसे पापका निरसन नहीं हो सकता । क्रियाकाण्डके समयमें भी साधुके कर्मचेतनाकी प्रधानता नहीं होती ज्ञानचेतनाकी ही प्रधानता होती है उसीसे पापका क्षय होता है। ज्यों-ज्यों ज्ञानचेतनाकी प्रधानता होती जाती है त्यों-त्यों ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षय होकर ज्ञानमें निर्मलता आती जाती है । उसीसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होकर निर्वाणकी प्राप्ति होती है। निर्वाण दशामें समग्र द्रव्यपर्यायोंको जाननेवाला केवलज्ञान अनन्त सुखके साथ रिला-मिला हुआ रहता है उससे मुक्तावस्था में परम प्रशान्तिरूप प्रमोदभाव रहता है। इसके साथ ही मुक्त आत्माको जन्म-मरणके चक्रसे छुटकारा मिल जाता है। अतः मोक्षका लक्षण पुनर्जन्मका न होना भी है। अतः योगीको साधक दशामें नित्य-नैमित्तिक कृत्य अवश्य विधेय है। अन्य दर्शनोंमें भी ऐसा ही कहा है ॥७७॥
इस प्रकार आवश्यक प्रकरण समाप्त होता है।।
आगे षडावश्यकसे अवशिष्ट कृतिकर्मका संग्रह करते हुए अपने कल्याणके इच्छुक मुमुक्षुओंको कृतिकमेका सेवन करने की प्रेरणा करते हैं
यथाजात अर्थात् संयम ग्रहण करते समय बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहकी चिन्तासे मुक्त निर्ग्रन्थ रूपको धारण करनेवाले साधुको समाधिके लिए उपयोगी काल, आसन, स्थान, मुद्रा, आवर्त और शिरोनति-नमस्कारसे युक्त बत्तीस दोष रहित कृतिकर्मको विनयपूर्वक करना चाहिए ॥१८॥
विशेषार्थ-कृति अर्थात् पापकर्मके छेदनके, कर्म अर्थात् अनुष्ठानको कृतिकर्म कहते हैं । यह कृतिकर्म बत्तीस दोष टालकर करना चाहिए । तथा योग्य काल, आसन आदि उसके अंग है । आगे इनका कथन करेंगे ॥७८।। १. 'नित्यनैमित्तकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् ।
ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ अभ्यासात पक्वविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः।'-प्रशस्तपादभाष्य-व्योमवती टीका, प. २० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org