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अष्टम अध्याय करजानुविनामेऽसौ चतुरङ्गो मनीषिभिः । करजानुशिरोनामे पञ्चाङ्गः परिकीत्यंते ॥ प्रणामः कायिको ज्ञात्वा पञ्चधेति मुमुक्षुभिः । विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादिवन्दने ॥' [
]॥९५॥ अथ क्रियाप्रयोगविधि नियमयन्नाह
कालुष्यं येन जातं तं क्षमयित्वैव सर्वतः ।
सङ्गाच्च चिन्ता व्यावर्त्य क्रिया कार्या फलार्थिना ॥१६॥ कालुष्यं-क्रोधाद्यावेशवशाच्चित्तस्य क्षोभः । येनेति करणे सहार्थे वा तृतीया । यथाह
'येन केनापि संपन्न कालुष्यं दैवयोगतः । क्षमयित्वैव तं त्रेधा कर्तव्यावश्यकक्रिया ॥ [
]॥९६॥ अथ अमलमिति विशेषणं व्याचष्टे
दोषत्रिशता स्वस्य यदव्युत्सर्गस्य चोज्झितम्।
त्रियोगशुद्धं क्रमवन्निर्मलं चितिकर्म तत् ॥१७॥ स्वस्य देववन्दनात्मनो । दोषैः-अनादृतादिभिः । व्युत्सर्गस्य-कायोत्सर्गस्य । दोषैः-घोटकादिभिः। क्रमवत-प्रशस्तक्रमम् । क्रमविशद्धमित्यर्थः। चितिकर्म-चितेस्तीर्थकरत्वादिपुण्यार्जनस्य कर्म १५ क्रिया जिनादिवन्दनेत्यर्थः ।। उक्तं च
'दुओणदं जहाजादं वारसावत्तमेव य। चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्म पउज्जदे ॥ तिविहं तियरणसुद्धं मयरहियं दुविहट्ठाण पुणरुत्तं ।
विणएण कमविसुद्धं किदियम्मं होदि कायव्वं ॥' [ मूलाचार गा. ६०१-२] और दोनों घुटनोंका नम्र होना चार अंगी प्रणाम है। दोनों हाथोंको मस्तकसे लगाकर दोनों घुटनोंके साथ नम्र होना पंचांगी प्रणाम है । अर्थात् शरीरके एक अंग मस्तक, दो अंग दोनों हाथ, तीन अंग दोनों हाथ और मस्तक, चार अंग दोनों हाथ और दोनों घुटने तथा पाँच अंग दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर दोनों घुटनोंको भूमिसे लगाना ये एकांग, दो अंग, तीन अंग, चार अंग और पंचांग प्रणाम हैं। यह शारीरिक प्रणाम कृतिकर्म करनेवाले यथास्थान करते हैं ।।९४-९५॥
आगे कृतिकर्मके प्रयोगकी विधि बताते हैं
कर्मोकी निर्जरारूप फल और तीर्थंकरत्व आदि पुण्यका उपार्जन करनेके इच्छुक मुमुक्षुको जिसके साथ क्रोध आदिके आवेशसे चित्तको क्षोभ उत्पन्न हुआ हो उससे क्षमा कराकर तथा समस्त परिग्रहसे मनको हटाकर कृतिकर्म करना चाहिए ।।९६।।
पहले इसी अध्यायके ७८वें श्लोकमें कृतिकर्मको अमल कहा है उस अमल विशेषणको
स्पष्ट करते हैं
जो अपने बत्तीस दोषोंसे और कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोषोंसे रहित हो, मन-वचनकायकी शुद्धिको लिये हो, क्रमसे विशुद्ध हो, उसे पूर्वाचार्य निर्मल चितिकर्म कहते हैं ॥९॥
विशेषार्थ-जिन आदिकी वन्दनासे पुण्यकर्मका अर्जन होता है इसलिए उसे चितिकर्म भी कहते हैं । जो चितिकर्म अपने बत्तीस दोषोंसे तथा कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोषोंसे रहित होता है, मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक होता है और जिसमें क्रमभंग नहीं होता,
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