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द्विष्ठे – कलहादिना द्वेषविषयीकृते । अकृत्वा क्षमां - स्वयं क्षन्तव्यमकृत्वा तमक्षमयित्वा वा । कृतापराधस्य मनसि क्षमामनुत्साद्येत्यर्थः । तर्जना - प्रदेशनीपरावर्तनेन भयोत्पादनम् । सूरिभि: - आचार्या दिभिः ॥ १०५ ॥ जल्पक्रिया - वार्तादिकथनम् । उपहासादि । आदि शब्देनोद्घट्टनादि । भङ्गः - मोटनम् । १२ भ्रकुटि: -- ललाटे वलित्रयकरणम् ॥ १०६ ॥ करामर्शः - हस्ताभ्यां परामर्शः । पश्यन् । यदित्यध्याहार्यम् । पश्यत्सु । अपश्यत्सु न स्तोमीति भावः । सुष्ठु वा । परेषु पश्यत्सु सोत्साहं वन्दत इत्यर्थः ॥ १०७॥ विष्टि:
धर्मामृत (अनगार )
अदृष्टं गुरुदृग्मार्गत्यागो वाऽप्रतिलेखनम् । विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम् ॥१०८॥ उपध्याप्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया । हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका ॥१०२॥ मूको मुखान्तर्वन्दारोह ङ्काराद्यथ कुर्वतः । 'दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेनच्छादयतो ध्वनीन् ॥ ११० ॥ द्वात्रिंश वन्दने गोया दोषः सुललिताह्वयः ।
इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निर्जरार्थिना ॥ १११ ॥
सिर करके संकुचित होकर वन्दना करना बाईसवाँ कुंचित दोष है । दिशाकी ओर देखते हुए वन्दना करना दृष्टदोष है अथवा आचार्य आदिके देखते रहनेपर तो बन्दना ठीक करना अन्यथा दिशा की ओर ताकना तेईसवाँ दृष्टदोष है ॥ १०७॥
गुरुकी आँखों से ओझल होकर वन्दना करना अथवा प्रतिलेखना न करके वन्दना करना अदृष्ट दोष है । यह संघकी बड़ी जबरदस्ती है कि हठसे क्रिया करायी जाती है ऐसा भाव रखकर वन्दना करना पचीसवाँ संघकरमोचन नामक दोष है ||१०८||
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विशेषार्थ - मूलाचार ( ७११०९ ) की संस्कृत टीकामें संघको कर चुकाना मानकर वन्दना करनेको संघकर मोचन दोष कहा है । अमितगति श्रावकाचार ( ८1८३ ) में भी 'करदानं गणेर्मत्वा' से यही लक्षण किया गया है || १०८ ||
उपकरण आदि के लाभ होनेसे आवश्यक क्रियाका करना आलब्ध नामक छब्बीसवाँ दोष है । उपकरण आदि की इच्छासे आवश्यक क्रिया करना अनालब्ध नामका सत्ताईसवाँ दोष है । ग्रन्थ अर्थ और कालके प्रमाणके अनुसार वन्दना न करना हीन नामक अठाईसवाँ दोष है । वन्दनाको तो थोड़े ही समयमें करना और उसकी चूलिकारूप आलोचना आदिमें बहुत समय लगाना उत्तरचूलिका नामक उनतीसवाँ दोष है ॥ १०९ ॥
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वन्दना करनेवाला मूककी तरह यदि मुखके ही भीतर पाठ करता है, जो किसीको सुनाई नहीं देता अथवा जो वन्दना करते हुए हुंकार या अंगुलि आदिसे संकेत करता है उसके मूक नामक तीसवाँ दोष होता है । अपनी आवाजसे दूसरोंके शब्दों को दबाकर जो जोरसे वन्दना करता है उसके दर्दुर नामक इकतीसवाँ दोष होता है ॥११०॥
वन्दना करते समय पाठको गाकर पंचमस्वरसे पढ़ना सुललित नामक बत्तीसवाँ दोष है । निर्जराके अभिलाषीको इस प्रकारके दोषोंसे रहित बन्दना करनी चाहिए । अथवा यहाँ 'इति' शब्द प्रकारवाची है । अतः क्रियाकाण्ड आदि में कहे गये इस प्रकारके अन्य वन्दनादोष भी त्यागने चाहिए। जैसे शिरको नीचा करके या ऊँचा करके वन्दना करना, मस्तक के
१. 'दर्पुरो' इति सम्यक् प्रतिभाति । तथा च ' मूगं च ददुरं चापि' इति मूलाचारे ७।११० ।
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