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अष्टम अध्याय
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योगपट्टरूपेण । सप्तभयात् - मरणादिभयसप्तकाद् हेतोः । बिभ्यतः कर्म बिभ्यद्दोष इत्यर्थः ॥ १०२ ॥ गणः-चातुर्वर्ण्यश्रमण संघः । भावी - भविष्यति । वन्दारोः – वन्दनां साधुत्वेन कुर्वतः । गौरवं शेष गौरवमित्यर्थः
॥१०३॥
स्याद् वन्दने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः । प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रतिकूल्यतः ॥ १०४ ॥ प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमां त्रिधा । तजितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः ॥ १०५ ॥ शब्दो जल्पक्रियाऽन्येषामुपहासावि हेलितम् । त्रिवलितं कटिग्रीवा हृदभङ्गो भृकुटिर्नवा ॥ १०६॥ करामर्शोऽथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कुञ्चितम् । दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यत्स्वन्येषु सुष्टु वा ॥ १०७॥
अपने मस्तक पर अकुंशकी तरह अँगूठा रखकर वन्दना करना अंकुशित नामका छठा दोष है । वन्दना करते समय बैठे-बैठे कछुएकी तरह सरकना, कटिभागको इधर-उधर करना कच्छपरिंगित नामका सातवाँ दोष है ॥१००॥
जैसे मछली एक पार्श्वसे उछलती है उसी तरह कटिभागको उचकाकर वन्दना करना मत्स्योद्वर्त नामक आठवाँ दोष है । गुरु आदिके ऊपर चित्तमें आक्षेप करना मनोदुष्ट नामक नौवाँ दोष है ॥ १०१ ॥
वेदी आकार में दोनों हाथोंसे बायें और दायें स्तनप्रदेशों को दबाते हुए वन्दना करना या दोनों हाथोंसे दोनों घुटनोंको बाँधते हुए वन्दना करना वेदिकाबद्ध नामक दसवाँ दोष है । सात प्रकारके भयोंसे डरकर वन्दना करना भय नामक ग्यारहवाँ दोष है । आचाय के भय से कृतिकर्म करना बारहवाँ बिभ्यत्ता नामक दोष है ॥ १०२ ॥
चार प्रकार के मुनियोंका संघ मेरा भक्त बन जायेगा यह भावना रखकर वन्दना करनेवाले साधुके ऋद्धिगौरव नामक बारहवाँ दोष होता है । अपने माहात्म्यकी इच्छासे या आहार आदिकी इच्छासे वन्दना करना गौरव नामक चौदहवाँ दोष होता है ।। १०३ ||
गुरु आदिकी चोरीसे छिपकर वन्दना करनेपर स्तेनित नामक पन्द्रहवाँ दोष होता है । प्रतिकूल वृत्ति रखकर गुरुकी आज्ञा न मानना प्रतिनीत नामक सोलहवाँ दोष है || १०४ || लड़ाई-झगड़े के द्वारा यदि किसीके साथ द्वेषभाव उत्पन्न हुआ हो तो मन, वचन, कायसे उससे क्षमा न माँगकर या उसे क्षमा न करके वन्दना करनेपर प्रदुष्ट नामक सतरहवाँ दोष है । अपनी तर्जनी अंगुलि हिला-हिलाकर शिष्य आदिको भयभीत करना अथवा आचार्य आदि के द्वारा अपनी तर्जना होना तर्जित नामक अठारहवाँ दोष है || १०५ ||
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वार्तालाप करते हुए वन्दना करना शब्द नामक उन्नीसवाँ दोष है । दूसरोंका उपहासादि करना या आचार्य आदिका वचनसे तिरस्कार करके वन्दना करना हेलित नामक बीसवाँ दोष है । मस्तक में त्रिवली डालकर वन्दना करना इक्कीसवाँ त्रिवलित दोष है ॥ १०६ ॥ विशेषार्थ - मूलाचार ७।१०८ की संस्कृत टीकामें शब्ददोष के स्थान में पाठान्तर मानकर शाठ्य दोष भी गिनाया है । शठतासे अथवा प्रपंचसे वन्दना करना शाठ्य दोष है ॥ १०६ ॥
कुंचित हाथोंसे सिरकास्पर्श करते हुए वन्दना करना अथवा दोनों घुटनों के बीच में
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