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धर्मामृत (अनगार )
वायसो वायसस्येव तिर्यगीक्षा खलोनितम् । खलीनार्ताश्ववद्दन्तघृष्टयोर्ध्वाधश्चलच्छिरः ॥ ११६॥ ग्रीवां प्रसार्यावस्थानं युगातंगववद्युगः । मुष्टि कपित्थवद् बद्ध्वा कपित्थः शीर्षकम्पनम् ॥१९७॥ शिरःप्रकम्पितं संज्ञा मुखनासाविकारतः । मूकवन्मूकिताख्यः स्यादङ्गुलीगणनाङ्गुली ॥११८॥
क्षेप भ्रूविकारः स्याद् घूर्णनं मदिरार्तवत् । उन्मत्त ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यधः ॥ ११९॥ निष्ठीवनं वपुस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम् । मायाप्रापास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षाविवर्जनम् ॥१२०॥
उठाकर कायोत्सर्ग करना उत्तरित नामक नौवाँ दोष है । शिशुको स्तन पिलानेवाली स्त्रीकी तरह छातीको ऊपर उठाकर कायोत्सर्ग करना स्तनोन्नति नामक दसवाँ दोष है ॥ ११५ ॥
विशेषार्थ - मूलाचारकी (७/१७१ ) संस्कृत टीकामें कायोत्सर्ग करते हुए अपने स्तनोंपर दृष्टि रखना स्तनदृष्टि नामक दोष कहा है । किन्तु अमितगति श्रावकाचार में ( ८/९१ ) ऊपर की तरह ही कहा है ||११५||
कायोत्सर्ग में स्थित होकर कौएकी तरह तिरछे देखना वायस नामक ग्यारहवाँ दोष है । तथा लगाम से पीड़ित घोड़े की तरह दाँत कटकटाते हुए सिरको ऊपर-नीचे करना खलीनित नामक बारहवाँ दोष है ॥ ११६ ॥
विशेषार्थ- - वायस कौएको कहते हैं और खलीन लगामको कहते हैं ।
जुसे पीड़ित बैल की तरह गरदनको लम्बी करके कायोत्सर्गसे स्थित होना युग नामक तेरहवाँ दोष है । कैथकी तरह मुट्ठी करके कायोत्सर्गसे खड़े होना कपित्थ नामक चौदहवाँ दोष है । कायोत्सर्गसे स्थित होकर सिर हिलाना शिरप्रकम्पित नामक पन्द्रहवाँ दोष है । कायोत्सर्गसे स्थित होकर गूँगेकी तरह मुख, नाकको विकृत करना मूक नामक सोलहवाँ दोष है । कायोत्सर्ग से स्थित होकर अँगुलीपर गणना करना अँगुली नामक सतरहवाँ दोष है ।।११७-११८।।
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कायोत्सर्ग से स्थिर होकर भ्रुकुटियोंको नचाना भूक्षेप नामक अठारहवाँ दोष है 1 शराबीकी तरह घूमते हुए कायोत्सर्ग करना घूर्णन नामक उन्नीसवाँ दोष है । गरदनको अनेक प्रकार से ऊँचा उठाना ऊर्ध्वनयन नामक बीसवाँ दोष है । गरदनको अनेक प्रकारसे नमोना अधोनयन नामक इक्कीसवाँ दोष है ॥ ११९ ॥
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कायोत्सर्ग से स्थित होकर थूकना, खखारना आदि निष्ठीवन नामक बाईसवाँ दोष है | शरीरका स्पर्श करना वपुस्पर्श नामक तेईसवाँ दोष है । प्रमाणसे कम करना न्यूनता नामक चौबीसवाँ दोष है । दिशाओंकी ओर ताकना दिगवेक्षण नामक पचीसवाँ दोष है । मायाचारको लिये हुए विचित्र रूप से कायोत्सर्ग करना जिसे देखकर आश्चर्य हो यह छब्बीसवाँ दोष है । वृद्धावस्थाके कारण कायोत्सर्गं छोड़ देना सत्ताईसवाँ दोष है ॥१२०॥
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