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अष्टम अध्याय
६२३ 'मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूपरम् ।
स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदितम् ॥ [ अमि. श्रा. ८.५४ ] तथा
'मुक्ता शुक्तिमंता मुद्रा जठरोपरि कूपरम् ।
ऊध्वंजानोः करद्वन्द्वं संलग्नांगुलि सूरिभिः॥' [ अमि. श्रा. ८५६ ] ॥८६॥ अथ मुद्राणां यथाविषयं प्रयोगनिर्णयार्थमाह
स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे ।
योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने ॥८७।। स्वमुद्रा-वन्दनामुद्रा प्रयोक्तव्येत्युपस्कारः । सामायिकस्तवे-सामायिकं च णमो अरहंताणमित्यादि ९ दण्डकः, स्तवश्च थोस्सामीत्यादि दण्डकः । ( सामायिकं च स्तवश्च ) सामायिकस्तवस्तस्मिन् । आस्ययाउपवेशनेन । तनुज्झने-क्रियमाणे । स्थित्या-उद्धीभावेन । ॥८७॥ अथावर्तस्वरूपनिरूपणार्थमाह
शुभयोगपरावर्तानावर्तान् द्वादशाहुराद्यन्ते । ___ साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोङ्गगीःसंयतं परावय॑म् ॥८॥
शुभयोगपरावर्तान्-शुभा हिंसादिरहितत्वात् प्रशस्ता योगा मनोवाक्कायव्यापारास्तेषां परावर्ताः १५ पूर्वावस्थात्यागेनावस्थान्तरप्रापणानि । आद्यन्ते-आरम्भे समाप्तौ च । साम्यस्य-णमो अरहंताणमित्यादि सामायिकदण्डकस्य । स्तवस्य-थोस्सामीत्यादिदण्डकस्य । मनोङ्गगी:-चित्तकायवाचम् । संयतंमिरुद्धपापव्यापारम् । मनोङ्गगी:संयतमिति वा समस्तम् । तत्र मनोङ्गगिरां संयतं संयमनमिति विग्रहः । । परावत्यं-अवस्थान्तरं नेतव्यं वन्दनोद्यतैरिति शेषः । तद्यथा-सामायिकस्यादी क्रियाविज्ञापनं विकल्पत्यागेन तदुच्चारणं प्रति मनसः प्रणिधानं संयतमनःपरावर्तनमुच्यते । तथा भूमिस्पर्शलक्षणावनतिक्रियावन्दनामुद्रात्यागेन पुनरुत्थितस्य मुक्ताशुक्तिमुद्राङ्कितहस्तद्वयपरिभ्रमणत्रयं संयतकायपरावर्तनमाख्यायते। २१
वन्दनामुद्रा है। तथा इसी स्थितिमें दोनों हाथों की अंगुलियोंको परस्परमें मिलाना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है ॥८६॥
आगे इन चार मुद्राओंमें-से कब किस मुद्राका प्रयोग करना चाहिए, यह बताते हैं
आवश्यक करनेवालेको वन्दना करते समय वन्दनामुद्राका प्रयोग करना चाहिए। 'णमो अरहताण' इत्यादि सामायिक दण्डक तथा 'थोस्सामि' इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवके समय मुक्ताशुक्तिमुद्राका प्रयोग करना चाहिए । इसी प्रकार बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा और खड़े होकर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्राको धारण करना चाहिए ॥८॥
विशेषार्थ----आवश्यक करते समय मुद्राका प्रयोग करना आवश्यक है। हिन्दू पुराणों में तो मुद्राके अनेक भेद कहे हैं और लिखा है कि जो दैविक कर्म बिना मुद्राके किया जाता है वह निष्फल होता है ( देखो-शब्दकल्पद्रुममें 'मुद्रा' शब्द ) ॥८७॥
आगे आवर्तका स्वरूप कहते हैं__ शुभयोगके परावर्तनको आवर्त कहते हैं। वे आवर्त बारह होते हैं। क्योंकि वन्दना करनेवालोंको सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें मन, वचन और कायको पापाचारसे रोककर शुभ आचारमें लगाना चाहिए ॥८८
विशेषार्थ-मन, वचन और कायके व्यापारको योग कहते हैं। हिंसा आदिसे रहित होनेसे प्रशस्त योगको शुभयोग कहते हैं। उनके परावर्तको अर्थात् पूर्व अवस्थाको त्यागकर
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