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अष्टम अध्याय
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त्रिः संपुटीकृतो हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुनः।
साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतत्तदाचरेत् ॥८९॥ पठेत्-साम्यमुच्चारयेदिति संबन्धः । भ्रमयेत्-पुनस्त्रीन् वारानावर्तयेदिति संबन्धः। उक्तं च ३ चारित्रसारे-व्युत्सर्गतपोवर्णनप्रस्तावे-'क्रियां कुर्वाणो वीर्योपगृहनमकृत्वा शक्त्यनुरूपतः स्थितेन असक्तः सन् पर्यङ्कासनेन वा त्रिकरणशुद्धया संपुटीकृतकरः क्रियाविज्ञापनपूर्वकं सामायिकदण्डकमुच्चारयन् तदावर्तत्रयं यथाजातशिरोनमनमेकं भवति । अनेन प्रकारेण सामायिकदण्डकसमाप्तावपि प्रवर्त्य यथोक्तकालं जिनगुणानु- ६ स्मरणसहितं कायव्युत्सगं कृत्वा द्वितीयदण्डकस्यादावन्ते च तथैव प्रवर्तताम् । एवमेकस्य कायोत्सर्गस्य द्वादशायश्चित्वारि शिरोवनमनानि भवन्ति' इत्यादि ।।८९।। अथ शिरोलक्षणमाह
प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत क्रियते शिरः।
यत्पाणिकुड्मलाङ्क तत् क्रियायां स्याच्चतुःशिरः ॥१०॥ नन्नमत्-भृशं पुनः पुनर्वा नमत् । प्रणमदिति वा पाठः। क्रियायां-चैत्यभक्त्यादिकायोत्सर्ग- .. विषये । चतुः-चतुरो वारान् । सामायिकदण्डकस्य आदावन्ते च तथा स्तवदण्डकस्य चावर्तत्रयप्रयोगोत्तरकालं शिरोवनमनविधानात् । अथवा चतुर्णा शिरसां समाहारश्चतुः शिर इति व्याख्येयम् ॥१०॥
अथ चैत्यभक्त्यादिषु प्रकारान्तरेणाप्यावर्तशिरसां संभवोपदेशार्थमाह
आवश्यक करनेवाले साधुको ‘णमो अरहताणं' इत्यादि सामायिकदण्डकका उच्चारण करनेसे पहले दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमाना चाहिए। फिर सामायिक पाठ पढ़ना चाहिए। पढ़ चुकनेपर पुनः उसी तरह दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमाना चाहिए । स्तवदण्डकके आदि और अन्तमें भी ऐसा ही करना चाहिए ।।८।।
विशेषार्थ-चारित्रसारमें व्युत्सर्ग तपके वर्णनमें लिखा है-कृतिकर्म करते हुए अपनी शक्तिको न छिपाकर शक्तिके अनुसार खड़े होकर या अशक्त होनेपर पर्यकासनसे बैठकर मनवचन-कायको शुद्ध करके, दोनों हाथोंको मुकुलित करे । फिर क्रियाविज्ञापनपूर्वक सामायिक दण्डकका उच्चारण करते हुए तीन आवर्त और एक बार सिरका नमन करे। इसी प्रकार सामायिक दण्डककी समाप्ति होने पर करे तथा यथोक्त काल तक जिनभगवान्के गुणोंका स्मरण करते हुए कायोत्सर्गको करके स्तबदण्डकके आदि और अन्तमें भी ऐसा ही करे। इस प्रकार एक कायोत्सग के बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। अथवा एक प्रदक्षिणा करनेपर प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त और एक नमस्कार इस तरह चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं । यदि इससे अधिक हो जायें तो कोई दोष नहीं है ।।८।।
आगे शिरोनतिका स्वरूप कहते हैं
चैत्यभक्ति आदि कायोत्सर्गके विषयमें तीन-तीन आवर्तके पश्चात् दोनों हाथोंको लित करके मस्तकसे लगानेपर जो चार बार भक्तिपूर्वक नमस्कार किया जाता है उसे शिरोनति कहते हैं। क्योंकि सामायिकदण्डकके आदि और अन्त में तथा स्तवदण्डकके आदि और अन्तमें तीन आवर्त के पश्चात् सिरको नमन करने का विधान है ॥१०॥
_चैत्यभक्ति आदिमें आवर्त और शिरोनति दूसरी तरहसे भी होते हैं। उसीको आगे बतलाते हैं
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