Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 677
________________ ३ ६ १२ धर्मामृत (अनगार ) विजेन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्तार्णाद्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् ॥८२॥ स्थेय:- निश्चलम् । तार्णादि - तृणकाष्ठशिलादिमयम् ॥८२॥ अथ वन्दनायोग्यं पद्मासनादित्रयं लक्षयति 'पद्मासनं श्रितौ पादौ जङ्घाभ्यामुत्तराधरे । पर्यङ्कासनं न्यस्तावृर्वो वीरासनं क्रमौ ॥८३॥ श्रितो -संश्लिष्टी । उत्तराधरे - उत्तराधर्येण स्थापिते । ते— जङ्घ । ऊर्वोः — सक्थनोरुपरि । उक्तं च ६२० 'त्रिविधं पद्मपर्यंङ्कवीरासनस्वभावकम् । आसनं यत्नतः कार्यं विदधानेन वन्दनाम् ॥ तत्र पद्मासनं पादो जङ्घाभ्यां श्रयतो यतेः । तयोरुपधोभागे पर्यंङ्कासनमिष्यते ॥ ऊर्वोरुपरि कुर्वाणः पादन्यासं विधानतः । वीरासनं यतित्ते दुष्करं दीनदेहिनः ॥' [ J वन्दनाकी सिद्धिके लिए तत्पर साधुको तृण, काष्ठ या पाषाणसे बना ऐसा आसन लेना चाहिए जिसमें खटमल आदि जन्तु न हों, न उसपर बैठनेसे चरमर आदि शब्द हो, छिद्र रहित हो, स्पर्श सुखकर हो, कील- काँटा न गड़ता हो, स्थिर हो - हिलता डुलता न हो तथा विनयको बढ़ानेवाला हो अर्थात् न बहुत ऊँचा हो और न ऊपरको उठा हुआ हो ॥८२॥ आगे वन्दना के योग्य तीन आसनोंका स्वरूप कहते हैं I जिसमें दोनों पैर जंघासे मिल जाये उसे पद्मासन कहते हैं । और दोनों जंघाओं को ऊपर-नीचे रखनेपर पर्यंकासन होता है । तथा दोनों जंघाओंसे ऊपर दोनों पैरोंके रखने पर वीरासन होता है ॥८३॥ विशेषार्थ — भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणमें पर्यकासन और कायोत्सर्गको सुखासन कहा है और इनसे भिन्न आसनोंको विषमासन कहा है । साथ ही यह भी कहा है कि ध्यान करनेवाले मुनिके इन दोनों आसनों की प्रधानता रहती है | और उन दोनोंमें भी पर्यंकासन अधिक सुखकर माना जाता है । किन्तु उन्होंने पर्यंकासनका स्वरूप नहीं बतलाया । सोमदेव सूरिने आसनोंका स्वरूप इस प्रकार कहा है - जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनोंसे नीचे दोनों जंघाओंपर रहते हैं वह पद्मासन है । जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों से १. ' स्थेयोऽछिद्रं सुखस्पर्शं विशब्दमप्यजन्तुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपवृंहकम् ॥' - अमिश्रा. ८०४४ २. 'वैमनस्ये च कि ध्यायेत् तस्मादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यङ्कस्ततोऽन्यद्विषमासनम् ॥ तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यतेः । प्रायस्तत्रापि पल्यङ्कमामनन्ति सुखासनम् ॥' - महापु . २११७१-७२ । ३. 'संन्यस्ताभ्यामधोऽङ्घ्रिभ्यामुर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीर सुखासनम् ॥' - उपासकाध्ययन ७३२ श्लोक | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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