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धर्मामृत ( अनगार) यः सोढुं कपटोत्यकोतिभुजगीमीष्टे श्रवोन्तश्चरों,
सोपि प्रेत्य दुरत्ययात्ययमयों मायोरगीमुज्झतु। नो चेत् स्त्रीत्वनपुंसकत्वविपरीणामप्रबन्धार्पितं
ताच्छोल्यं बहु धातृकेलिकृतपुंभावोऽप्यभिव्यङ्यति ॥१८॥ श्रवोन्तश्चरी-कर्णान्तरचारिणीम् । प्रेत्य-परलोके । दुरत्ययात्ययमयीं-दुरतिक्रमापायबहुलाम् । ६ ताच्छील्यं-स्त्रीनपुंसकस्वभावतां भावस्त्रीत्वं भावनपुंसकत्वं चेत्यर्थः । तल्लिङ्गानि यथा
श्रोणिमार्दवत्रस्तत्व-मुग्धत्वक्लीवतास्तनाः । पुंस्कामेन समं सप्त लिङ्गानि स्त्रैणसूचने । खरत्व-मेहनस्ताब्ध्य-शौण्डीर्यश्मश्रुधृष्टताः। स्त्रीकामेन समं सप्तलिङ्गानि पौंस्नवेदने । यानि स्त्रीपुंसलिङ्गानि पूर्वाणीति चतुर्दश । श्राव्यनि ( सर्वाणि ) तानि मिश्राणि षण्ढभावनिवेदने ।'
[पञ्चसं. अमि. ग. १।१९६-१९८ ] अत्र मानसा भावाभावस्य शारीराश्च द्रव्यस्य सूचका इति विभागः । अभिव्यक्ष्यति-अभिव्यक्तं करिष्यति ॥१८॥
'यह कपटी है। इस प्रकारकी अपकीर्तिरूपी सर्पिणीको कानोंके भीतर घूमते हुए सहन करने में जो समर्थ है, वह भी परलोकमें दुःखसे टारे जाने योग्य कष्टोंसे भरपूर मायारूपी नागिनको छोड़ देवे । यदि उसने ऐसा नहीं किया तो दैवके द्वारा क्रीड़ावश पुरुषत्व भावको
प्त होकर भी वह स्त्रीत्व और नपुंसकत्व रूप विविध परिणमनोंकी परम्परासे संयुक्त स्त्रीत्व और नपंसकत्व रूप प्रचुर भावोंको ही व्यक्त करेगा ॥१८॥
विशेषार्थ-वेद या लिंग तीन होते हैं-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद। ये तीनों भी दो-दो प्रकारके होते हैं-द्रव्यरूप और भावरूप। शरीरमें जो स्त्री-पुरुष आदिके चिह्न होते हैं उन्हें द्रव्यवेद कहते हैं और मनके विकारको भाववेद कहते हैं। नाम कर्म के उदयसे द्रव्यवेदकी रचना होती है और नोकषायके उदयसे भाववेद होता है। ये द्रव्यवेद और भाववेद प्रायः समान होते हैं किन्तु कर्म भूमिके मनुष्य और तिर्यंचोंमें इनकी विषमता भी देखी जाती है। अर्थात् जो द्रव्यरूपसे स्त्री है वह भावरूपसे स्त्री या पुरुष या नपुंसक होता है । जो द्रव्यरूपसे पुरुष है वह भावसे पुरुष या स्त्री या नपुंसक होता है। जो द्रव्यरूपसे नपुंसक होता है वह भावसे नपुंसक या स्त्री या पुरुष होता है। इस तरह नौ भेद होते हैं यह विचित्रता मायाचार करनेका परिणाम है। जो मायाचार करते हैं उनके साथ कर्म भी खेल खेलता है कि शरीरसे तो उन्हें पुरुष बनाता है किन्तु भावसे या तो वे स्त्री होते हैं या नपुंसक होते हैं । यह उक्त श्लोकका अभिप्राय है ॥१८॥
१. 'या स्त्री द्रव्यरूपेण भावेन साऽस्ति स्त्री ना नपुंसकः ।
पुमान् द्रव्येण भावेन पुमान् नारी नपुंसकः ॥ संढो द्रव्येण, भावेन संढो नारी नरो मतः । इत्येवं नवधा वेदो द्रव्यभावविभेदतः ।।-अमित. पं. सं. ११९३-१९४ ।
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