________________
६०४
धर्मामृत (अनगार) तत्फलं-ज्ञानावरणादिकर्मफलम् । व्युत्सृजेत्-विविधमुत्कृष्टं त्यजेत् । तथाहि-नाहं मतिज्ञानावरणीयफलं भुले चैतन्यमात्मानमेव संचेतये। एवं नाहं श्रुतज्ञानावरणीयफलमित्यादि समस्तकर्मप्रकृतिष्वा३ वर्तनीयम् । यथाह
'विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव ।
संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम् ॥' [ सम. कल., २३० श्लो. ] अपि च__'निःशेषकर्मफलसंन्यसनात् ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तिवृत्तेः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता ।।'
[ सम. क. २३१ श्लो. ]
वरणीय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। इसी तरह मैं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका फल नहीं भोगता, चैतन्य स्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। मैं अवधि ज्ञानावरणीय कमेका फल नहीं भोगता, चैतन्य स्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। इसी प्रकार समस्त कर्मोंकी समस्त प्रकृतियोंमें समझना चाहिए। कहा है-कर्मरूपी विषवृक्षके फल मेरे द्वारा बिना भोगे ही खिर जावें, मैं चैतन्य स्वरूप आत्माका निश्चयरूपसे संचेतन करता हूँ । अर्थात् ज्ञानी कहता है कि जो कर्म उदयमें आता है उसके फलको मैं ज्ञाता द्रष्टा रूपसे मात्र देखता हूँ उसका भोक्ता नहीं होता। इसलिए मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें । मैं अपने चैतन्य स्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता द्रष्टा ही रहूँ। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत दशामें इस प्रकारका ज्ञान-श्रद्धान ही प्रधान है। जब जीव अप्रमत्त होकर श्रेणी चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है। आशय यह है कि जब जीव सम्यग्दृष्टि ज्ञानी होता है तब उसे यह ज्ञान-श्रद्धान तो होता ही है कि मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और कर्म के फलसे रहित हूँ। परन्तु पूर्व बद्ध कर्म उदय आनेपर उनसे होनेवाले भावोंका कर्तृत्व छोड़कर त्रिकाल सम्बन्धी ४९, ४९ भंगोंके द्वारा कर्म चेतनाके त्यागकी भावना करके एक चैतन्य स्वरूप आत्माको भोगना ही शेष रह जाता है। अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत जीवके ज्ञान श्रद्धानमें निरन्तर यह भावना तो है ही। जब वह अप्रमत्त दशाको प्राप्त करके एकाग्रचित्तसे ध्यान लगाकर-केवल चैतन्य मात्र अवस्था में उपयोग लगाकर-शुद्धोपयोगरूप होता है तब श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। उस समय उस भावनाका, फल जो कर्मचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञान चेतना रूप परिणमन है, वह होता है। परंचात् आत्मा अनन्त कालतक ज्ञान चेतना ही रहता हुआ परमानन्दमें मग्न होता है। कहा हैसमस्त कर्मों के फलका त्याग करके ज्ञान चेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहता है कि पूर्वोक्त प्रकारसे समस्त कर्मो के फलका संन्यास करनेसे मैं चैतन्य लक्षणवाले आत्मतत्त्वको ही अतिशय रूपसे भोगता हूँ। इसके सिवाय अन्य उपयोगकी क्रिया तथा बाह्य क्रियामें प्रवृत्तिसे रहित अचल हूँ। सो मेरी यह अनन्त कालावलीतक आत्मतत्त्वके उपयोगमें प्रवृत्ति रहे, अन्यमें न जावे' । जो पुरुष पूर्वकालमें किये कर्मरूपी विषवृक्षके उदयरूप फलको स्वामी होकर नहीं भोगता और अपने आत्मस्वरूपमें ही तृप्त है वह पुरुष कर्मोंसे रहित स्वाधीन सुखमयी उस दशाको प्राप्त होता है जो वर्तमान कालमें रमणीय है और उत्तर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org