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अष्टम अध्याय
उक्तं च समयसारे
'कम्मं जं पुवकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्मि बज्झइ भविस्सं । तत्तो णियत्तए जो पच्चक्खाणं हवइ चेया ॥ जं सुहमसूहमुदीण्णं सपदि य अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया ॥ णिच्चं पच्चक्खाणं कुब्बइ णिच्चं पडिक्कमइ जो य ।
णिच्चं आलोचेयइ सो हु चरित्तं हवइ चेया ॥' [ गा. ३८३-३८६ ] इयं चात्र भावार्थसंग्रहकारिका नित्यमध्येतव्या
'ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् । अज्ञानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धि निरुणद्धि बन्धः ॥'
[स. कलश, श्लो. २२४ ] ॥६॥
इत्यादि
कालमें भी रमणीय है। ज्ञानीजन कर्म तथा कर्म के फलसे अत्यन्त विरत भावनाको निरन्तर भाकर, और समस्त अज्ञान चेतनाके विनाशको अच्छी तरहसे नचाकर, अपने निजरससे प्राप्त स्वभावरूप ज्ञान चेतनाको सानन्द पूर्ण करके नृत्य कराते हुए आगे प्रशमरसको सदा काल पीते रहें। - इसी अभिप्रायका संग्रह नीचे लिखे श्लोकोंमें है। अतः उनका नित्य चिन्तन करना चाहिए। उनमें कहा है-जो सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र रूप पुण्यकर्म, तथा ज्ञानावरणादि रूप पापकर्म समस्त या व्यस्त कारणोंसे जीवने योग और कषायके वशसे बाँधा है, उसका जो सदा प्रतिक्रमण करता है अर्थात 'मेरा दुष्कृत मिथ्या। उपायोंसे उदयमें आनेसे पहले ही निराकरण कर देता है वह 'अहं' प्रत्ययसे संवेद्य चिन्मात्र आत्मा स्वयं चारित्र है । अर्थात् अखण्ड ज्ञान स्वभाव रूप अपने में ही निरन्तर चरण करनेसे चारित्र है। तथा स्वयं चारित्ररूप होता हुआ अपने ज्ञान मात्रका संचेतन करनेसे स्वयं ही ज्ञान चेतना होता है। तथा जो पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्म वर्तमानमें उदयमें आ रहा है उसकी जो सदा आलोचना करता है अर्थात् अपनेसे अत्यन्त भिन्न अनुभव करता है वह चिन्मात्र आत्मा स्वयं चारित्र है। तथा जो शुभाशुभ कर्म भविष्यमें बँधनेवाला है उसका प्रत्याख्यान करनेवाला स्वयं चिन्मात्र आत्मा चारित्र है। उसीको स्पष्ट करते है-समस्त मन, वचन, कायसे या इनमें से एक या दो से, कृत कारित अनुमत रूप शुभाशुभ कर्मको निष्फल करने के लिए मैं नित्य प्रतिक्रमण करता हूँ। तथा उदयमें आते हुए पूर्वबद्ध कर्मको मैं अपनेसे अत्यन्त भिन्न नित्य अनुभव करता हूँ। तथा आगामीमें बँधनेवाले कर्मको नित्य रोकता हूँ। १. सर्वथाऽत्तं प्रतिक्रामन्नद्यदालोचयन् सदा।
प्रत्याख्यान् भावि सदसत्कर्मात्मावृत्तमस्ति चित् ॥ नष्फल्याय क्षिपेत्त्रेधा कृतकारितसम्मतम् । कर्म स्वाच्चेतयेऽत्यन्तभिदोद्यदुन्ध उत्तरम् ॥ अहमेवाहमित्येव ज्ञानं तच्छुद्धये भजे । शरीराद्यहमित्येवाज्ञानं तच्छेत वर्जये ॥[
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