________________
अष्टम अध्याय
६०३
३
पूर्ववत् । यथाह
'मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥' [ सम. कल. २२७ श्लो.] तथा न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन च इत्यादि पूर्ववत् । यथाह
'प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ [ स. कल. २२८ श्लो.] एवं चेदमभ्यसनीयम्
'समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बो। विलीनमोहो रहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥ [सम. कल. २२९ श्लो.]
न कमानेके ही समान हुआ। इसी प्रकार जीवने पहले जो कर्मबन्ध किया था, जब उसे अहित रूप जानकर उसके प्रति ममत्व भाव छोड़ दिया और उसके फलमें लीन नहीं हुआ तब भूतकालमें बाँधा हुआ कर्म नहीं बाँधनेके समान मिथ्या हो गया। इस प्रकार प्रतिक्रमण हुआ। इसी प्रकार आलोचना होती है
___ मैं वर्तमानमें कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अनुमोदना करता हूँ मनसे, वचनसे, कायसे । इस प्रकार प्रतिक्रमणके समान आलोचना भी ४९ भंग पूर्वक की जाती है । अर्थात् मोहके विलाससे फैला हुआ जो यह उदयागत कर्म है, उस सबकी आलोचना करके मैं निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
आशय यह है कि वर्तमानमें उदयमें आये कर्मके प्रति ज्ञानी विचार करता है कि मैंने पहले जो कर्म बाँधा था उसका यह कार्य है, मेरा नहीं। मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। मैं तो शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ। उसकी प्रवृत्ति तो ज्ञान दर्शन रूप है। अतः मैं तो उदयागत कर्मका ज्ञाता द्रष्टा हूँ। इस प्रकार आलोचना करता है।
इसी प्रकार प्रत्याख्यानका भी क्रम जानना। मैं भविष्यमें कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे, वचनसे, कायसे इत्यादि पूर्ववत् ४९ भंगोंसे आगामी कर्मका प्रत्याख्यान किया जाता है। कहा है-भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके, मोहसे रहित होता हुआ मैं निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मामें आत्मासे निरन्तर वर्त रहा हूँ।
आशय यह है कि व्यवहार चारित्र में जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान होता है। किन्तु निश्चय चारित्रमें शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्वकर्म आत्माके दोषरूप हैं । अतः उन समस्त कर्म चेतना स्वरूप परिणामोंका तीन कालके कर्मोका प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्वकर्म चेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोग रूप आत्माके ज्ञान श्रद्धान द्वारा तथा उसमें स्थिर होनेका संकल्प करता है। कहा है-पूर्वोक्त प्रकारसे तीनों कालोंके समस्त कर्मोको दूर करके शुद्धनयका अवलम्बन करनेवाला और मिथ्यात्वरूपी मोहसे रहित मैं सर्व विकारोंसे रहित चैतन्य मात्र आत्माका अवलम्बन करता हूँ।
इस तरह कर्मसंन्यास करके कर्मफलके संन्यासकी भावना करता है-मैं मति ज्ञाना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org