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धर्मामृत ( अनगार) अथ व्युत्सर्गस्वामिनमुत्कर्षतो निर्दिशति
देहाद विविक्तमात्मानं पश्यन् गुप्तित्रयीं श्रितः।
स्वाङ्गेऽपि निस्पृहो योगी व्युत्सगं भजते परम् ॥१५॥ योगी-सद्ध्याननिष्ठो यतिः ॥१५॥ अथ प्रकारान्तरेणान्तरङ्गोपधिव्युत्सर्गमाह
कायत्यागश्चान्तरङ्गोपधिव्युत्सर्ग इष्यते ।
स द्वधा नियतानेहा सार्वकालिक इत्यपि ॥१६॥ नियतानेहा-परिमितकालः ॥९६॥ अथ परिमितकालस्य द्वौ भेदावाह
तत्रोप्याद्यः पुनāधा नित्यो नैमित्तिकस्तथा ।
आवश्यकादिको नित्यः पर्वकृत्यादिकः परः ॥९७॥ आवश्यकादिक:-आदिशब्दात मलोत्सर्गाद्याश्रयः। पर्वकृत्यादिक:-पार्वणक्रियानिषद्यापुरःसरः ॥९७॥
है-'यह समस्त संसार एकरूप है। किन्तु निवृत्तिका परम प्रकर्ष होनेपर समस्त जगत् अभोग्य ही प्रतीत होता है। और प्रवृत्तिका परम प्रकर्ष होनेपर समस्त जगत् भोग्य ही प्रतीत होता है । अतः यदि आप मोक्षके अभिलाषी हैं तो जगत्के सम्बन्धमें यह अभोग्य है और यह भोग्य है इस विकल्प बुद्धिकी निवृत्तिका अभ्यास करें ॥१४॥
उत्कृष्ट व्युत्सर्गके स्वामीको बतलाते हैं
जो अपने आत्माको शरीरसे भिन्न अनुभव करता है, तीनों गुप्तियोंका पालन करता है और बाह्य अर्थकी तो बात ही क्या, अपने शरीरमें भी निस्पृह है वह सम्यध्यानमें लीन योगी उत्कृष्ट व्युत्सर्गका धारक और पालक है ॥९५॥
अन्तरंग व्युत्सर्गका स्वरूप प्रकारान्तरसे कहते हैं
पूर्व आचार्य कायके त्यागको भी अन्तरंग परिग्रहका त्याग मानते हैं। वह कायत्याग दो प्रकारका है-एक नियतकाल और दूसरा सार्वकालिक ॥१६॥
नियतकाल कायत्यागके दो भेद बतलाते हैं
नियतकाल और सार्वकालिक कायत्यागमें से नियतकाल कायत्यागके दो भेद हैंएक नित्य और दूसरा नैमित्तिक । आवश्यक करते समय या मलत्याग आदि करते समय जो , कायत्याग है वह नित्य है। और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पोंमें क्रियाकर्म करते समय या . बैठने आदिकी क्रियाके समय जो कायत्याग किया जाता है वह नैमित्तिक है ।।९७॥ .
विशेषार्थ-कायत्यागका मतलब है शरीरसे ममत्वका त्याग । प्रतिदिन साधुको जो छह आवश्यक कर्म करने होते हैं उस कालमें साधु शरीरसे ममत्वका त्याग करता है, यह उसका नित्य कर्तव्य है। अतः यह नित्य कायत्याग है। और पर्व आदिमें जो धार्मिक कृत्य करते समय कायत्याग किया जाता है वह नैमित्तिक कायत्याग है ॥२७॥
१. 'व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः। सद्विविधः-बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । अनुपात्तं वास्तुधन
धान्यादि बाह्योपधिः । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधिः । कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाऽभ्यन्त रोपधित्याग इत्युच्यते ।'-सर्वार्थसि., ९।२६ ।
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