Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 611
________________ ५५४ धर्मामृत ( अनगार) उक्तं च 'सेवंतो वि ण सेवइ असेवमाणो वि सेवओ को वि। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणोत्ति सो होई ॥' [ समयप्रा., गा. १९७ ] ॥३॥ अथ ज्ञान्यज्ञानिनोः कर्मबन्धं विशिनष्टि नाबुद्धिपूर्वा रागाद्या जघन्यज्ञानिनोऽपि हि । बन्धायालं तथा बुद्धिपूर्वा अज्ञानिनो यथा ॥४॥ तथा-तेन अवश्यभोक्तव्यसुखदुःखफलत्वलक्षणेन प्रकारेण । यथाह 'रोगद्वेषकृताभ्यां.......ताभ्यामेवेष्यते मोक्षः' ॥४॥ विशेषार्थ-विषय भोगका फल है बुद्धिपूर्वक रागादिसे होने वाला कर्मबन्ध । परद्रव्यको भोगते हुए जीवके सुखरूप या दुःखरूप भाव नियमसे होते हैं। इस भावका वेदन करते समय मिथ्यादृष्टिके रागादिभाव होनेसे नवीन कर्मबन्ध अवश्य होता है। अतः कर्मके उदयको भोगते हुए जो पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है वह वस्तुतः निजरा नहीं है क्योंकि उस निर्जराके साथ नवीन कर्मबन्ध होता है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करते हुए ऐसा अनुभव करता है कि आज मैं धन्य हूँ जो इस तरहके उत्कृष्ट भोगोंको भोग रहा हूँ। किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानीके पर द्रव्यको भोगते हुए भी रागादि भावोंका अभाव होनेसे नवीन कर्मबन्ध नहीं होता केवल निर्जरा ही होती है। कहा है-'कोई तो विषयोंको सेवन करता हुआ भी नहीं सेवन करता है। और कोई नहीं सेवन करता हुआ भी सेवक होता है। जैसे किसी पुरुषके किसी कार्यको करनेकी चेष्टा तो है अर्थात् स्वयं नहीं करते हुए भी किसीके करानेसे करता है वह इस कार्यका स्वामी नहीं होता। ऐसी ही ज्ञानीकी भी स्थिति होती है। यहाँ ज्ञानीसे आशय है आत्मज्ञानमें उपयुक्त व्यक्ति' ॥३॥ ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्ध में विशेषता बतलाते हैं जैसे अज्ञानीके बुद्धिपूर्वक रागादि भाव बन्धके कारण होते हैं उस तरह मध्यमज्ञानी और उत्कृष्ट ज्ञानीकी तो बात ही क्या, जघन्यज्ञानी अर्थात् हीन ज्ञानवाले ज्ञानीके भी अबुद्धिपूर्वक रागादि भाव बन्धके कारण नहीं होते ॥४॥ विशेषार्थ-ज्ञानीके निचली दशामें अबुद्धिपूर्वक रागादि भाव होते हैं। पं. आशाधर जीने अबुद्धिका अर्थ किया है आत्मदृष्टि । अर्थात् आत्मदृष्टि पूर्वक होनेवाले भावको अबुद्धि , पूर्वक भाव कहते हैं। समयसार गाथा १७२ की आत्म ख्यातिमें आचार्य अमृतचन्द्रजीने लिखा है-'जो निश्चयसे ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोहरूप आस्रव भावका अमाव होनेसे निरास्रव ही है। किन्तु इतना विशेष है कि वह ज्ञानी भी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट रूपसे देखने-जानने और आचरण करने में असमर्थ होता है और जघन्यरूपसे ही ज्ञान (आत्मा)को देखता है, जानता है, आचरण करता है तबतक उसके भी अनुमानसे अबुद्धिपूर्वक कर्ममल कलंकका सद्भाव ज्ञात होता है क्योंकि यदि ऐसा न होता तो उस ज्ञानीके ज्ञानका जघन्य भाव होना संभव नहीं था। अतः उसके पौद्गलिक कर्मका बन्ध होता १. रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोर्बन्धः प्रवृत्त्यवृत्तिभ्याम् । तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताम्यामेवेष्यते मोक्षः ॥'-आत्मानुशा. १०८ श्लो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794