________________
अष्टम अध्याय
५८९
अथ को विनय इत्याह
हिताहिताप्तिलुप्त्यर्थं तदङ्गानां सदाञ्जसा।
यो माहात्म्योद्भवे यत्नः स मतो विनयः सताम् ॥४७॥ तदङ्गानां-हितप्राप्त्यहितछेदनसाधनानाम् । अञ्जसा-निर्व्याजम् । माहात्म्योद्भवे-शक्तिविशेषस्योत्पादे उल्लासे वा ॥४७॥ अथ विनयस्य पञ्चविधत्वमनुवर्ण्य मोक्षार्थस्य तस्य निर्जरार्थिनामवश्यकर्तव्यतामुपदिशति
लोकानुवृत्तिकामार्थभयनिक्षेयसाश्रयः।
विनयः पञ्चधावश्यकार्योऽन्त्यो निर्जराथिभिः ॥४८॥ लोकानुवृत्तिः-व्यवहारिजनानुकूलाचरणम् । उक्तं च
'लोकानुवर्तनाहेतुस्तथा कामार्थहेतुकः। विनयो भवेहेतुश्च पञ्चमो मोक्षसाधनः ॥' उत्थानमञ्जलिः पूजाऽतिथेरासनढोकनम् । देवपूजा च लोकानुवृत्तिकृद् विनयो मतः ।। भाषाच्छन्दानुवृत्तिं च प्रदानं देशकालयोः । लोकानुवृत्तिरर्थाय विनयश्चाञ्जलिक्रिया ॥
कर्म अर्थात् पुण्य संचयका कारण कहते हैं। जिससे अर्हत् आदिकी पूजा की जाती है उसे पूजाकर्म कहते हैं। जिससे कर्मोका संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि होकर निराकरण किया जाता है उसे विनयकर्म कहते हैं । ये सब वन्दनाके नामान्तर हैं। आ. अमितगतिने भी कहा है-कर्मरूपी जंगलको जलानेके लिए अग्निके समान पाँच परमेष्ठियोंका मन-वचन-कायकी शुद्धि पूर्वक नमस्कार करनेको विद्वान् वन्दना कहते हैं। मन-वचन-कायसे करनेसे उसके तीन भेद होते हैं ॥४६॥
आगे विनयका स्वरूप कहते हैं
हितकी प्राप्ति और अहितका छेदन करनेके लिए, जो हितकी प्राप्ति और अहितके छेदन करनेके उपाय हैं उन उपायोंका सदा छल-कपटरहित भावसे माहात्म्य बढ़ानेका प्रयत्न करना, उन उपायोंकी शक्तिको बढ़ाना, इसे साधुजन विनय कहते हैं ॥४७॥
आगे विनयके पाँच भेद बताकर निर्जराके अभिलाषियोंको पाँचवें भेद मोक्षार्थ विनयको अवश्य पालनेका उपदेश देते हैं
विनयके पाँच भेद कहते हैं-लोकानुवृत्तिहेतुक विनय, कामहेतुक विनय, अर्थहेतुक विनय, भयहेतुक विनय और मोक्षहेतुक विनय । व्यवहारीजनोंके अनुकूल आचरण करना लोकानुवृत्तिहेतुक विनय है। जिससे सब इन्द्रियाँ प्रसन्न हों उसे काम कहते हैं। जिस विनयका आश्रय काम है वह कामहेतुक विनय है। जिससे सब प्रयोजन सिद्ध होते हैं उसे अर्थ कहते हैं। अर्थमूलक विनय अर्थहेतुक विनय है। भयसे जो विनय की जाती है वह भयहेतुक विनय है। और जिस विनयका आश्रय मोक्ष है अर्थात् मोक्षके लिए जो विनय की जाती है वह मोक्षहेतुक विनय है । जो मुमुक्षु कर्मोंकी निर्जरा करना चाहते हैं उन्हें मोक्षहेतुक विनय अवश्य करना चाहिए ॥४८॥ १. भयहे-भ. कु. च.।
'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org