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अष्टम अध्याय 'विनिन्दनालोचनगर्हणैरहं मनोवचःकायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारणं भिषाविषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ॥'
[ द्वात्रिंशतिका ] नामेत्यादि-नामस्थापनादिषटकाश्रितस्यापराधस्य पापस्य वेत्यर्थः । तदेतत् प्रतिक्रमणलक्षणम् । उक्तं च
'प्रमादप्राप्तदुःखेभ्यः प्रत्यावृत्य गुणावृतिः ।।
स्यात्प्रतिक्रमणा यद्वा कृतदोषविशोधना ॥ [ ] ॥५७॥ - अर्थवमाचारशास्त्रमतेन सप्तविधं प्रतिक्रमणमभिधाय शास्त्रान्तरोक्ततभेदान्तराणामत्रैवान्तर्भावप्रकाशनार्थमाह
सोऽन्त्ये गुरुत्वात् सर्वातीचारवीक्षाश्रयोऽपरे ।
निषिद्धिकेर्यालुश्चाशदोषार्थश्च लघुत्वतः ॥५८॥ उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है। इसमें सब दोषोंके प्रतिक्रमणका अन्तर्भाव हो जाता है। ये सभी प्रतिक्रमण साधुके लिए यथासमय करणीय होते हैं।
श्वेताम्बरीय स्थानांग सूत्र (स्था. ६ठा) में छह प्रतिक्रमण कहे हैं-उच्चार, प्रश्रवण, इत्वर, यावत्कथिक, यत्किंचन मिथ्या और स्वापनान्तिक । मलत्याग करनेके बाद जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह उच्चार प्रतिक्रमण है। मूत्रत्याग करके जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह प्रश्रवण प्रतिक्रमण है । अल्पकालीन प्रतिक्रमणको इत्वर कहते हैं इसमें दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण आ जाते हैं । यावज्जीवनके लिए भोजनका त्याग यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। नाक, कफ आदि त्यागने में जो दोष लगता है वह मिथ्या हो इस प्रकारके प्रतिक्रमणको यत्किंचित् मिथ्या प्रतिक्रमण कहते हैं। सोते समय हुए दोषोंके लिए या स्वप्नमें किये हिंसा आदि दोषोंको दूर करनेके लिए किये जानेवाले प्रतिक्रमणको स्वापनान्तिक कहते हैं। आवश्यक सूत्र में दैवसिक, रात्रिक, इत्वर, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ भेद कहे हैं। उसकी टीकामें यह प्रश्न किया गया है कि जब प्रतिदिन किये जानेवाले प्रतिक्रमणसे ही दोषोंकी विशुद्धि हो जाती है तब पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणोंकी क्या आवश्यकता है। इसके उत्तरमें घरका दृष्टान्त देते हुए कहा है कि जैसे घरकी सफाई प्रतिदिन की जाती है फिर भी पक्ष आदि बीतनेपर विशेष रूपसे सफाई की जाती है वैसे ही प्रतिक्रमणके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए ।।५७||
इस प्रकार आचारशास्त्रके मतसे सात प्रकारके प्रतिक्रमणको कहकर अन्य शास्त्रोंमें कहे गये प्रतिक्रमणके भेदोंका इन्हीं में अन्तर्भाव दिखलाते हैं
सर्वातिचार सम्बन्धी और दीक्षा सम्बन्धी प्रतिक्रमण अन्तके उत्तमार्थ प्रतिक्रमणमें अन्तर्भूत होते हैं क्योंकि उन प्रतिक्रमणोंमें भक्ति उच्छ्वास और दण्डकपाठ बहुत हैं। तथा निषिद्धिका गमन, केशलोंच, गोचरी और दुःस्वप्न आदि अतीचार सम्बन्धी प्रतिक्रमणोंका अन्तर्भाव ऐर्यापथिक आदि प्रतिक्रमणोंमें होता है, क्योंकि इनमें भक्ति उच्छ्वास और दण्डकपाठ अल्प होते हैं ।।५८॥
१. 'पडिकमणं देवसिअ राइच इत्तरिअमावकहियं च ।
पक्खिअ चाउम्मासिअ संवच्छरि उत्तमटे अ॥-आवश्यक ४।२१ ।
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