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अष्टम अध्याय
कायकारान्दुकायाऽहं स्पृहयामि किमायुषे। तदुःखक्षणविश्रामहेतोभृत्योबिभेमि किम् ॥२८॥ लाभे दैवयशःस्तम्भे कस्तोषः पुमधस्पदे। को विषादस्त्वलाभे मे दैवलाघवकारणे ॥२२॥ योगो ममेष्टः संकल्पात् सुखोऽनिष्टैवियोगवत् ।
कष्टश्चेष्टैवियोगोऽन्योगवन्न तु वस्तुतः ॥३०॥ वस्तुतः अन्यैः अनिष्टः ॥३०॥ राग और इष्ट वियोगमें द्वेषका त्याग करता हूँ। उपकारक मित्रमें राग और अपकारक शत्रुमें द्वपका त्याग करता हूँ। तथा सुखमें राग और दुःखमें द्वषका त्याग करता हूँ ।।२७।।
आगे जीवनकी आशा और मरणके भयका निराकरण करते हैं
भवधारणमें कारण आयुकर्म शरीररूपी जेलखानेमें रोके रखने के लिए लोहेकी साँकलके समान है, उसको मैं क्यों इच्छा करूँगा। और मृत्यु उस शरीररूपी जेलखानेके कष्टसे क्षण-भरके लिए विश्रामका कारण है। उससे मैं क्यों डरूँगा ।।२८॥
विशेषार्थ-आयुकर्म के बिना जीवन नहीं रहता। अतः जीवनकी इच्छा प्रकारान्तरसे आयुकर्मकी ही इच्छा करना है। उसीके कारण यह जीव इस शरीररूपी जेलखानेमें बन्द रहता है। अतः कौन बुद्धिमान ऐसे कर्मकी इच्छा करेगा। मृत्यु ही ऐसा मित्र है जो इस जेलखानेके कष्ट से कुछ क्षणों के लिए छटकारा दिलाती है क्योंकि जब जीव पूर्व शरारका छोड़कर नया शरीर धारण करने के लिए विग्रह गतिसे गमन करता है तो एक मोड़ा लेनेपर एक समय तक, दो मोड़े लेनेपर दो समय तक और तीन मोड़े लेनेपर तीन समय तक औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके न रहनेसे शरीररूपी जेलखानेसे मुक्ति रहती है। अतः मृत्युसे डरनेका कोई कारण नहीं है ॥२८॥
लाभ और अलाभमें हर्ष और विषादका निषेध करते हैं
जो लाभ दैवका कीर्तिस्तम्भ और पुरुषकी निन्दाका घर है उसके होनेपर हर्ष कैसा ? और जिस अलाभके होनेपर दैवकी अर्थात् पूर्व संचित पापकर्मकी हानि होती है उसमें विषाद कैसा ? ॥२९||
विशेषार्थ-पूर्व जन्ममें संचित शुभ और अशुभ कर्मको दैव कहते हैं। पुण्यकर्म के उदयसे लाभ और पापकर्मके उदयसे अलाभ होता है। यदि किसी व्यक्तिको लाभ होता है तो लोग उसके पौरुषकी प्रशंसा न करके दैवकी ही प्रशंसा करते हैं । अतः लाभ पुरुषके प्रयत्नको गिरानेवाला और दैवकी महिमा बढ़ानेवाला है अतः उससे सन्तुष्ट होना व्यर्थ
के विपरीत पुरुषके प्रयत्न करनेपर भी यदि लाभ नहीं होता तो लोग यही कहते हैं कि बेचारेने मेहनत तो बड़ी की किन्तु पापकर्मका उदय होनेसे लाभ नहीं हुआ। इस तरह अलाभमें सारा दोष दैवके ही सिर पड़ता है तब अलाभसे खेद क्यों ? कहा है-सब लोगोंमें चमत्कार करनेवाले, अपार साहसके धनी मनुष्यकी यदि इष्ट सिद्धि नहीं होती है तो यह दुर्देवका ही अपयश है उस मनुष्यका नहीं ।।२९॥
___ आगे विचार करते हैं कि इष्ट पदार्थ के संयोगको सुखका और वियोगको दुःखका १. 'असमसाहससूव्यवसायिनः सकललोकचमत्कृतिकारिणः ।
यदि भवन्ति न वाञ्छितसिद्धयो हतविधेरयशो न नरस्य तत्' ।-शंकुक कवि ।
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