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सप्तम अध्याय
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अथ स्वकारणचतुष्टयादुद्भवन्तीमाहारसंज्ञामाहारादिदर्शनादिप्रतिपक्षभावनया निगृह्णीयादित्यनुशास्ति
भुक्त्यालोकोपयोगाभ्यां रिक्तकोष्ठतयाऽसतः।
वैद्यस्योदोरणाच्चान्नसंज्ञामभ्युद्यतों जयेत् ॥२०॥ भुक्त्यालोकोपयोगाभ्यां-आहारदर्शनेन तदुपयोगेन च । आहारं प्रति मनःप्रणिधानेनेत्यर्थः । असतः-असातसंज्ञस्य ॥२०॥ अथानशनतपोभावनायां नियते
शुद्धस्वात्मरुचिस्तमीक्षितुमपक्षिप्याक्षवर्ग भजन
निष्ठासौष्ठवमङ्गनिर्ममतया दुष्कर्मनिर्मलनम्। श्रित्वाऽब्दानशनं श्रुतापितमनास्तिष्ठन् धृतिन्यक्कृत
द्वन्द्वः कहि लभेय बोर्बलितुलामित्यस्त्वनाश्वांस्तपन् ॥२१॥ अपक्षिप्य-विषयेभ्यो व्यावृत्य । श्रित्वा-प्रतिज्ञाय । तिष्ठन्-उद्भःसन् । धृतिन्यक्कृतद्वन्द्वःधृतिः आत्मस्वरूपधारणं स्वरूपविषया प्रसत्तिर्वा । तया न्यक्कृतानि अभिभूतानि द्वन्द्वानि परीषहा येन । १२ कहि लभेय-कदा प्राप्नुयामहम् । दोबलितुलां-बाहुबलिकक्षाम् । तच्चर्या आर्षे यथा
'गुरोरनुमतोऽधीती दधदेकविहारताम् । प्रतिमायोगमावर्षमातस्थे किल संवृतः ॥' 'स शंसितव्रतोऽनाश्वान् वनवल्लीततान्तिकः ।
वल्मीकरन्ध्रनिःसर्पत् सरासीद् भयानकः ।।' [ महापु. ३६।१०६-१०७ ] इत्यादि प्रबन्धेन । अनाश्वान्-अनशनव्रतः ॥२१॥
जिससे तप्त हुए शरीरमें रहनेवाला आत्मा आगसे तपी हुई मूषामें रखे हुए स्वर्णके समान शुद्ध हो जाता है। अर्थात् जैसे स्वर्णकारकी मूषामें रखा हुआ स्वर्ण आगकी गर्मीसे शुद्ध हो जाता है वैसे ही शरीरमें स्थित आत्मा अनशन तपके प्रभावसे शुद्ध हो जाता है ।।१९।।
आगे चार कारणोंसे उत्पन्न होनेवाली आहारसंज्ञाका प्रतिपक्ष भावनासे निग्रह करनेका उपदेश देते हैं
भोजनको देखनेसे, भोजनकी ओर मन लगानेसे, पेटके खाली होनेसे तथा असातावेदनीय कर्मकी उदीरणा होनेसे उत्पन्न होनेवाली भोजनकी अभिलाषाको रोकना चाहिए ॥२०॥
_ विशेषार्थ-आगममें आहारसंज्ञाके ये ही चार कारण' कहे हैं-'आहारके देखनेसे, उसकी ओर मन लगानेसे, पेट के खाली होनेसे तथा असातावेदनीयकी उदीरणा होनेसे आहारकी अभिलाषा होती है ॥२०॥
अनशन तपकी भावनामें साधुओंको नियुक्त करते हैं
शुद्ध निज चिद्रपमें श्रद्धालु होकर, उस शुद्ध निज आत्माका साक्षात्कार करनेके लिए, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर चारित्रका सुचारुतासे पालन करते हुए, शरीरसे ममत्वको त्यागकर, अशुभ कर्मोंकी निर्जरा करनेवाले एक वर्षके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर, श्रुतज्ञानमें मनको लगाकर, खड़ा होकर, आत्मस्वरूपकी धारणाके द्वारा परीषहोंको निरस्त
१. 'आहारदसणेण य तस्सुवजोगेण ओमकोठाए।
वेदस्सुदीरणाए आहारे जायदे सण्णा' ।-गो. जीव. १३५ ।
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