________________
सप्तम अध्याय
दोषो बहुजनं सूरिदत्तान्यक्षुण्णतत्कृतिः। बालाच्छेदग्रहोऽव्यक्तं समात्तत्सेवितं त्वसौ ॥४३॥ दशेत्युज्झन् मलान्मूलाप्राप्तः पदविभागिकाम् ।
प्रकृत्यालोचनां मूलप्राप्तश्चौधों तपश्चरेत् ॥४४॥ [पञ्चकम्] गुरुच्छेदभयात्-महाप्रायश्चित्तशंकातः। आवर्जनं-उपकरणदानादिना आत्मनोऽल्पप्रायश्चित्तदानार्थमनुकूलनम् ।
तपःशूरस्तवात्-धन्यास्ते ये वीरपुरुषाचरितमुत्कृष्टं तपः कुर्वन्तीति व्यावर्णनात् । तत्र-तपसि । स्वाशक्त्याख्या-आत्मनोऽसामर्थ्यप्रकाशनं गुरोरग्रे । अनुमापितं-गुरुः प्राथितः स्वल्पप्रायश्चित्तदानेन ममानु (-ग्रहं करीष्यतोत्यनुमानेन)। स्यैव (बादरस्यैव)-स्थूलस्यैव दूषणस्य प्रकाशनं सूक्ष्मस्य तु आच्छादनमित्यर्थः ॥४१॥
छन्नमित्यादि-इदशे दोषे सति कीदशं प्रायश्चित्तं क्रियत इति स्वदोषोद्देशेन गुरुं पृष्वा तदुक्तं प्रायश्चित्तं कुर्वतः छन्नं नामालोचनादोषः । शब्दसंकुले-पक्षाद्यतीचारशुद्धिकालेषु बहुजनशब्दबहुले स्थाने ॥४२॥
सूरिरित्यादि-सूरिणा स्वगुरुणा दत्तं प्रथमं वितीर्ण पश्चादन्यैः प्रायश्चित्तकुशलैः क्षुण्णं चर्चितं तत्प्रायश्चित्तम् । तस्य कृतिः अनुष्ठानम्। बालात-ज्ञानेन संयमेन वा हीनात् । समात्-आत्मसदशात पार्श्वस्थात प्रायश्चित्तग्रहणम । तत्सेवितं-तेन समेन प्रायश्चित्तदायिना पावस्थेन सेव्यमानत्वात । असो आलोचनादोषः ॥४३॥ .. पदविभागिकां-विशेषालोचनां. दीक्षाग्रहणात प्रभृति यो यत्र यदा यथाऽपराधः कृतस्तस्य तत्र तदा तथा प्रकाशनात् । औधी-सामान्यालोचना । उक्तं च
ओघेन पदविभागेन द्वेधालोचना समुद्दिष्टा ।
मूलं प्राप्तस्योधी पादविभागी ततोऽन्यस्य । सूक्ष्म दोषको छिपाना बादर नामक दोष है। गुरुके आगे केवल सूक्ष्म दोषको ही प्रकट करना स्थूलको छिपाना सूक्ष्म नामक दोष है। ऐसा दोष होनेपर क्या प्रायश्चित्त होता है इस प्रकार अपने दोषके उद्देश्यसे गुरुको पूछकर उनके द्वारा कहा गया प्रायश्चित्त करनेसे छन्न नामक आलोचना दोष होता है क्योंकि उसने गुरुसे अपना दोष छिपाया। जब अन्य साधु पाक्षिक आदि दोषोंकी विशुद्धि करते हों और इस तरह बहुत हल्ला हो रहा हो उस समय गुरुके सामने अपने दोषोंका निवेदन करना शब्दाकुल नामक आलोचना दोष है। अपने गुरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तको अन्य प्रायश्चित्त कुशल साधुओंसे चर्चा करके स्वीकार करना बहुजन नामक आलोचना दोष है। अपनेसे जो ज्ञान और संयममें हीन है उससे प्रायश्चित्त लेना अव्यक्त नामक दोष है। अपने ही समान दोषी पाश्वस्थ मुनिसे प्रायश्चित्त लेना तत्सेवित नामक दोष है। इस प्रकार इन दस दोषोंको त्यागकर आलोचना करना चाहिए । जिनसे मूलव्रतका सर्वोच्छेद नहीं हुआ है एकदेश छेद हुआ है उन्हें पदविभागिकी आलोचना करना चाहिए और जिनसे मूलका छेद हुआ है उन्हें औघी आलोचना करनी चाहिए ॥४०-४४॥
विशेषार्थ-आलोचनाके दो भेद कहे हैं-पदविभाग और ओघ । इनको स्पष्ट करते हुए अन्यत्र कहा है-'ओघ और पदविभागके भेदसे आलोचनाके दो भेद कहे हैं। जिसने व्रतका पूरा छेद किया है वह औघी अर्थात् सामान्य आलोचना करता है और जिसने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org