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सप्तम अध्याय
५०३
अथ बह्वाशिनो दोषानाह
बह्वाशी चरति क्षमादिदशकं दृप्यन्न नावश्यका
न्यक्षणान्यनुपालयत्यनुषजत्तन्द्रस्तमोऽभिद्रवन् । ध्यानाद्यर्हति नो समानयति नाप्यातापनादीन्वपुः
शर्मासक्तमनास्तदर्थमनिशं तत्स्यान्मिताशी वशी॥२३॥ तमोऽभिद्रवन-मोहमभिगच्छन् । समानयति-प्रत्यानयति सम्पूर्णीकरोति वा ॥२३॥ अथ मिताशनादिन्द्रियाणां प्रद्वेषाभावं वशवतित्वं च दर्शयति
नाक्षाणि प्रद्विषन्त्यन्नप्रति क्षयभयान्न च ।
दर्पात् स्वैरं चरन्त्याज्ञामेवानूद्यन्ति भृत्यवत् ॥२४॥ अन्नप्रति-अन्नस्य मात्रया स्तोकाहारेण इत्यर्थः। उपवासादिन्द्रियाणां क्षयभयं स्यात् । 'अन्नप्रति' इत्यत्र 'स्तोके प्रतिना' इत्यनेन अव्ययीभावः । आज्ञामेवानु-आज्ञयैव सह । उद्यन्ति-उत्थानं कुर्वन्ति ॥२४॥
___ १२ अथ मिताशिनो गुणविशेषमाह
शमयत्युपवासोत्थवातपित्तप्रकोपजाः।
रुजो मिताशी रोचिष्णु ब्रह्मवर्चसमश्नुते ॥२५।। रोचिष्णु-दीपनशीलम् । ब्रह्मवर्चसं-परमात्मतेजः श्रुतज्ञानं वा ॥२५॥
अथ वृत्तिपरिसंख्यानतपसो लक्षणं तदाचरणफलं चोपदिशतिअण्डे प्रमाण बत्तीस ग्रास भोजन माना है। उसमें एक या दो या तीन भाग कम करना अवमौदर्य है।
इसके लाभ बतलाते हुए कहा है-'यह ऊनोदर तप धर्म, आवश्यक, ध्यान और ज्ञानादिकी प्राप्ति में उपकारी होता है तथा इन्द्रियोंके मदको दूर करता है' ।।२२।।
बहुत भोजन करनेके दोष कहते हैं
बहुत अधिक भोजन करनेवाला साधु प्रमादी होकर उत्तम, क्षमादि रूप दस धर्मों को नहीं पालता, न आवश्यकोंको निर्दोष और सम्पूर्ण रूपसे पालता है। उसे सदा तन्द्रा सताती है, इसलिए मोहसे अभिभूत होकर ध्यान, स्वाध्याय वगैरह भी नहीं करता। शारीरिक सुखमें मनके आसक्त होनेसे आतापनयोग, वषोयोग आदिको भी पूरा नहीं करता। इसलिए धर्मादिकी पूर्तिके लिए मुनिको सदा मितभोजी होना चाहिए ॥२३॥
आगे कहते हैं कि परिमित भोजन करनेसे इन्द्रियाँ अनुकूल और वशमें रहती हैं
अल्प आहारसे इन्द्रियाँ मानो उपवाससे इन्द्रियोंका क्षय न हो जाये, इस भयसे अनुकूल रहती हैं और मदके आवेशमें स्वच्छन्द नहीं होती हैं। किन्तु सेवककी तरह आज्ञानुसार ही चलती हैं ॥२४॥
मित भोजनके विशेष गुण कहते हैं
उपवासके द्वारा वात-पित्त कुपित हो जानेसे उत्पन्न हुए रोग अल्पाहारसे शान्त हो जाते हैं। तथा परिमितभोजी प्रकाशस्वभाव परमात्म तेजको अथवा श्रुतज्ञानको प्राप्त करता है ॥२५।।
आगे वृत्तिपरिसंख्यान तपका लक्षण और उसका फल कहते हैं
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