________________
सप्तम अध्याय
अथातः सम्यक् तप आराधनामुपदेष्टुकामो मुक्तिप्रधानसाधनवैतृष्ण्यसिद्धयर्थं नित्यं तपोऽर्जयेदिति शिक्षयन्नाह
ज्ञाततत्त्वोऽपि वैतृष्ण्यादृते नाप्नोति तत्पदम् ।
ततस्तत्सिद्धये धीरस्तपः तप्त्येत नित्यशः ॥१॥ वैतृष्ण्यात् ॥१॥ अथ तपसो निर्वचनमुखेन लक्षणमाह
तपो मनोऽक्षकायाणां तपनात् सन्निरोधनात् ।
निरुच्यते दृगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम् ॥२॥ निरुच्यते-निर्वचनगोचरीक्रियते ॥२॥ पुनर्भङ्गयन्तरेण तल्लक्षणमाह
यद्वा मार्गाविरोधेन कर्मोच्छेदाय तप्यते । अजंयत्यक्षमनसोस्तत्तपो नियमक्रिया ॥३॥
यहाँसे ग्रन्थकार सम्यक् तप आराधनाका उपदेश करनेकी इच्छासे सर्वप्रथम यह शिक्षा देते हैं कि मुक्तिका प्रधान साधन वैतृष्ण्य है। अतः उसकी सिद्धिके लिए सदा तप करना चाहिए
यतः हेय उपादेयरूप वस्तुस्वरूपको जानकर भी वैतृष्ण्यके बिना अनन्तज्ञानादिचतुष्टयके स्थानको प्राप्त नहीं होता। इसलिए उस वैतृष्ण्यकी सिद्धिके लिए परीषह उपसर्ग आदिसे न घबरानेवाले धीर पुरुषको नित्य तप करना चाहिए ॥१॥
विशेषार्थ-जिसने हेय-उपादेयरूपसे वस्तुस्वरूपका निर्णय कर लिया है वह भी वैतृष्ण्यके बिना मुक्तिस्थानको प्राप्त नहीं कर सकता, फिर जिन्होंने तत्त्वको जाना ही नहीं है उनकी तो बात ही क्या है। जिसकी तृष्णा-चाह चली गयी है उसे वितृष्ण कहते हैं। अर्थात् वीतराग, वीतद्वेष और क्षायिक यथाख्यात चारित्रसे सम्पन्न मुनि वितृष्ण होता है। वितृष्णके भावको अर्थात् वीतरागताको वैतृष्ण्य कहते हैं ॥१॥
व्युत्पत्तिपूर्वक तपका लक्षण कहते हैं
मन, इन्द्रियाँ और शरीरके तपनेसे अर्थात् इनका सम्यक् रूपसे निवारण करनेसे सम्यग्दर्शन आदिको प्रकट करनेके लिए इच्छाके निरोधको तप कहते हैं ।।२।।
विशेषार्थ-तप शब्दकी निरुक्ति है मन, इन्द्रिय और कषायोंका तपना अर्थात् इनकी प्रवृत्तियोंको अच्छी तरहसे रोकना। इसीके लिए तप किया जाता है। और तपका लक्षण है इच्छाको रोकना और उस रोकनेका उद्देश्य है रत्नत्रयकी प्राप्ति ।।२।।
प्रकारान्तरसे तपका लक्षण कहते हैं
अथवा रत्नत्रयरूप मार्गमें किसी प्रकारकी हानि न पहुँचाते हुए ज्ञानावरण आदिका या शुभ-अशुभ कर्मोंका निर्मूल विनाश करनेके लिए जो तपा जाता है अर्थात् इन्द्रिय और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org