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धर्मामृत ( अनगार ) खलूक्त्वा हृत्कर्णक्रकचमखलानां यदतुलं,
किल क्लेशं विष्णोः कुसृतिरसृजत् संसृतिसृतिः । हतोऽश्वत्थामेति स्ववचनविसंवादितगुरु
___ स्तपःसूनुमान: सपदि शृणु सद्भयोऽन्तरधितः ॥२३॥ खलूक्त्वा-नोच्यते तत् साधुभिरिति संबन्धः । अखलानां-सज्जनानाम् । किल-आगमे लोके वा ६ श्रूयते । कुसृतिः-वञ्चना । संसृतिसृति:-संसारस्योपायभूता अनन्तानुबन्धिनीत्यर्थः। अश्वत्थामाद्रोणाचार्यपुत्रो हस्तिविशेषश्च । विसंवादितः-कुञ्जरो न नर इत्युक्त्वा विप्रलम्भितः । गुरुः-द्रोणाचार्यः । तपःसूनुः-युधिष्ठिरः । सद्भयोन्तरधितः-साधुभिरदशर्नमात्मन इच्छति स्म । सन्तो मां मा पश्यन्तु इत्यन्तहितोऽभूदित्यर्थः । 'सद्भयः' इत्यत्र 'येनादर्शनमिच्छति' इत्यनेन पञ्चमी ॥२३॥
अथ शौचरूपं धर्म व्याचिख्यासुस्तदेकप्रत्याख्येयस्य सन्निहितविषयगर्द्धयोत्पादलक्षणस्य लोभस्य सर्वपापमूलत्व-सर्वगुणभ्रंशकत्वप्रकाशनपूर्वकं कृशीकरणमवश्यकरणीयतया मुमुक्षूणामुपदिशति
लोभमलानि पापानीत्येतद्यैर्न प्रमाण्यते ।
स्वयं लोभाद् गुणभ्रंशं पश्यन्तः श्यन्तु तेऽपि तम् ॥२४॥ हे साधुओ ! सुनो । संसार मार्गको बढ़ानेवाली अनन्तानुबन्धी मायाने विष्णुको जो असाधारण कष्ट दिया, जैसा कि लोकमें और शास्त्रमें कहा है, वह सज्जनोंके हृदय और कानोंको करौंतकी तरह चीरनेवाला है। इसलिए साधुजन उसकी चर्चा भी नहीं करते। तथा 'अश्वत्थामा मर गया' इस प्रकारके वचनोंसे अपने गुरु द्रोणाचार्यको भुलावेमें डालनेवाले धर्मराज युधिष्ठिरका मुख तत्काल मलिन हो गया और उन्होंने साधुओंसे अपना मुँह छिपा लिया ॥२३॥
विशेषार्थ-श्रीकृष्णकी द्वारिका द्वीपायनके क्रोधसे जलकर भस्म हो गयी। केवल श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों भाई बचे। श्रीकृष्णको प्यास लगी तो बलदेव पानीकी खोजमें गये। इधर जरत्कुमारके बाणसे श्रीकृष्णका अन्त हो गया। यह सब महाभारतके युद्ध में श्रीकृष्णकी चतुराई करनेका ही फल है। उन्हींके ही उपदेशसे सत्यवादी युधिष्ठिरको झूठ बोलना पड़ा। क्योंकि द्रोणाचार्यके मरे बिना पाण्डवोंका जीतना कठिन था । अतः अश्वत्थामाके मरणकी बात युधिष्ठिरके मुखसे कहलायी ; क्योंकि वे सत्यवादी थे। उनकी बातपर द्रोणाचार्य विश्वास कर सकते थे। उधर अश्वत्थामा द्रोणाचार्यका पुत्र था और एक हाथीका नाम भी अश्वत्थामा था। हाथी मरा तो युधिष्ठिरने जोरसे कहा, अश्वत्थामा मारा गया। साथ ही धीरेसे यह भी कह दिया कि 'न जाने मनुष्य है या हाथी,' । द्रोणाचार्यके तत्काल प्राण निकल गये। युधिष्ठिरको बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने अपना मुख छिपा लिया कि उसे कोई सत्पुरुष न देखे । यह सब मायाचारका फल है ॥२३॥
इस प्रकार उत्तम आर्जव भावना प्रकरण समाप्त हुआ।
आगे ग्रन्थकार शौचधर्मका कथन करना चाहते हैं। उसमें सबसे प्रथम त्यागने योग्य है लोभ । निकटवर्ती पदार्थों में तीव्र चाहको उत्पन्न करना लोभका लक्षण है । यह लोभ सब पापोंका मूल है, सब गुणोंको नष्ट करनेवाला है। इसलिए मुमुक्षुओंको अवश्य ही लोभको कम करना चाहिए, ऐसा उपदेश देते हैं
जो लोग 'लोभ पापोंका मूल है' इस लोक प्रसिद्ध वचनको भी प्रमाण नहीं मानते, वे भी स्वयं लोभसे दया-मैत्री आदि गुणोंको विनाश अनुभव करके उस लोभको कम करें ॥२४॥
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