________________
४५०
धर्मामृत ( अनगार) अथ त्यागात्मकं धर्ममवगमयति
शक्त्या दोषकमूलत्वानिवृत्तिरुपधेः सदा।
त्यागो ज्ञानादिदानं वा सेव्यः सर्वगुणाग्रणी ॥५२॥ शक्तेत्यादि। अयमत्राभिप्रायः । परिग्रहनिवृत्तिरनियतकाला यथास्वशक्तिः त्यागः । कायोत्सर्गः पुननियतकालः सर्वोत्सर्गरूपः । कर्मोदयवशादसन्निहितविषयगोत्पत्तिनिषेधः शौचम् । त्यागः पुनः सन्निहिता६ पाय इति शौचादप्यस्य भेदः । सर्वगुणाग्रणी । उक्तं च
'अनेकाधेयदुष्पूर आशागर्तश्चिरादहो । चित्रं यत् क्षणमात्रेण त्यागेनैकेन पूर्यते ।। कः पूरयति दुष्पूरमाशागत दिने दिने ।
यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते ॥[ ] ॥५२॥ अथ ज्ञानदानमहिमानमखिलदानमाहात्म्यन्यग्भावेन पुरस्कुर्वन्नाह
ar
विशेषार्थ-उपेक्षा संयमके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती और उपेक्षा संयमकी साधना उत्कृष्ट तपके द्वारा ही सम्भव है। वह उत्कृष्ट तप है स्वाध्याय और ध्यान । कहा है'स्वाध्यायसे ध्यानका अभ्यास करना चाहिए और ध्यानसे स्वाध्यायको 'चरितार्थ करना चाहिए। तथा ध्यान और स्वाध्यायकी सम्प्राप्तिसे परमात्मा प्रकाशित होता है। अर्थात् परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए स्वाध्याय और बहुत ध्यान उपयोगी हैं ॥५१॥
आगे त्यागधर्मका कथन करते हैं
परिग्रह राग आदि दोषोंका प्रधान कारण है । इसलिए शक्तिके अनुसार उससे सदाके लिए जो निवृत्तिरूप परिणाम है उसे त्याग कहते हैं। अथवा ज्ञान आदिके दानको त्याग कहते हैं । वह सब गुणोंमें प्रधान है। साधुओंको उसका पालन करना चाहिए ॥५२॥ - विशेषार्थ-त्याग और शौचमें यह अन्तर है कि शक्तिके अनुसार अनियत काल तक परिग्रहकी निवृत्तिको त्याग कहते हैं । नियत काल तक सब कुछ त्यागनेको कायोत्सर्ग कहते हैं। और कर्मके उदयके दश जो अपने पास में नहीं है उसमें होनेवाली लालसाको रोकना शौच है । अर्थात् जो हमें प्राप्त नहीं है उस विषयकी तृष्णाको रोकना शौच है। और जो हमारे पास है उसे छोड़ना त्याग है। इस तरह शौचसे त्याग भिन्न है। तृष्णाकी पूर्ति होना असम्भव है। कहा है-'आशारूपी गत दुष्पूर है उसे कोई भर नहीं सकता। प्रतिदिन उसमें जो कुछ भरा जाता है वह आधेय न होकर आधार हो जाता है।'
किन्तु उसे भरनेका एक ही उपाय है और वह है त्याग । कहा है-'खेद है कि आशारूपी गर्त चिरकालसे अनेक प्रकारके आधेयोंसे भी नहीं भरता। किन्तु आश्चर्य है कि एक त्यागसे वह क्षण मात्रमें भर जाता है' ॥५२॥
आगे सब दानोंके माहात्म्यसे ज्ञानदानकी महिमाकी विशिष्टता बतलाते हैं
१. यत्र समस्तमा-भ. कु. च. । चारित्रसारे उद्धताविमौ श्लोकौ । २. 'स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् ।
ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते ।'-तत्त्वानु., ८१ श्लो.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org