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धर्मामृत ( अनगार) 'इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभुः ।
मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ।।' [ तत्त्वानु०, श्लो. ७६ ] ॥३९॥ ३ इतीन्द्रियसंयमसिद्धयर्थ मनः संयमयितुं मुमुक्षुरुपक्रमते
चिदृग्धोमु दुपेक्षिताऽस्मि तदहो चित्तेह हृत्पङ्कजे,
स्फूर्जत्वं किमुपेक्षणीय इह मेऽभीक्षणं बहिर्वस्तुनि। इष्टद्विष्टधियं विधाय करणद्वारैरभिस्फारयन्,
___ मां कुर्याः सुखदुःखदुर्मतिमयं दुष्टैर्न दूष्येत् किम् ॥४०॥ चित्-चेतति संवेदयते स्वरूपं पररूपं चेति चित् स्वपरप्रकाशात्मकोऽयमहमस्मि प्रमाणादेशात् । दक-पश्यत्यनुभवति स्वरूपमात्रमिति दृक् स्वात्मोपलब्धिरूपोऽयमहमस्मि शुद्धनिश्चयनयादेशात् । धी:ध्यायत्यनन्यपरतयोपलभते परस्वरूपमिति धी: परस्वरूपोपलब्धिरूपोऽयमहमस्मि । तत एव मुत्-मोदतेऽन्तर्बहिर्विकल्पजालविलयादात्मनि विश्रान्तत्वादाह्लादते इति मुत् शुद्धस्वात्मानुभूतिमयात्यन्तसुखस्वभावोऽयमहमस्मि शुद्धनिश्चयनयादेशादेव । उपेक्षिता-उपेक्षते स्वरूपे पररूपे क्वचिदपि न रज्यति न च द्वेष्टि इत्युपेक्षाशीलः परमोदासीनज्ञानमयोऽयमहमस्मि च तत एव । तथा चोक्तम्
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पूछो क्योंकि सूर्य के अस्त हो जानेपर गन्धका लोभी भ्रमर कमलकोशमें बन्द होकर मर जाता है। चक्षु कहती है कि मेरी शक्तिको साक्षी वायु है, क्योंकि सर्वत्र गतिवाली है। वह जानत
कि रूपके लोभी पतंगे किस तरह दीपकपर जल मरते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय कहती है कि मेरी शक्तिको मृगोंका शिकार करनेवाले शिकारी जानते हैं, क्योंकि गीतकी ध्वनिके लोभी मृग उनके जालमें फंसकर मारे जाते हैं। इस तरह व्यंग्यके द्वारा इन्द्रियोंने अपनी शक्तिका प्रदर्शन किया है। किन्तु इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति तो मनके अधीन है। अतः मनको जीतनेसे ही इन्द्रियोंको जीता जा सकता है। कहा भी है-इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति और निवृत्तिमें मन समर्थ है। इसलिए मनको ही जीतना चाहिए। मनके जीतनेपर जितेन्द्रिय होता है ।।३९।।
इसलिए मुमुक्षु इन्द्रिय संयमकी सिद्धिके लिए मनको संयमित करनेका अभ्यास करता है--
___ मैं चित् हूँ-प्रमाणकी अपेक्षा स्व और परका ज्ञाता हूँ। मैं दृक् हूँ--अपने स्वरूप मात्रका अनुभवन करनेवाला होनेसे शुद्ध निश्चयनयसे स्वात्मोपलब्धि स्वरूप हूँ। मैं धी हूँ-परकी ओर आसक्त न होकर परस्वरूपका ध्याता हूँ। इसीलिए अन्तरंग और बाह्य विकल्पजालोंके विलीन होनेसे अपनी आत्मामें ही विश्रान्ति लाभ करनेसे मुत् हूँ अर्थात् शुद्ध निश्चयसे शुद्ध स्वात्मानुभूतिमय अत्यन्त सुखस्वभाव मैं हूँ। तथा मैं उपेक्षिता हूँकिसी भी स्वरूप या पररूपमें रागद्वेषसे रहित हूँ अर्थात् परम औदासीन्य ज्ञानमय मैं हूँ । इसलिए हे मन! इस आगम प्रसिद्ध द्रव्यमनमें या हृदयकमलमें उस-उस विषयको ग्रहण करनेके लिए व्याकुल होकर इस उपेक्षणीय बाह्य वस्तुमें निरन्तर इष्ट और अनिष्ट बुद्धिको उत्पन्न करके इन्द्रियोके द्वारा उस-उस विषयके उपभोगमें लगाकर मुझे 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुखी हूँ' इस प्रकार मिथ्या ज्ञानरूप परिणत करनेमें क्या तुम समर्थ हो ? अथवा ऐसा हो भी सकता है क्योंकि अदुष्ट वस्तु भी दुष्टोंके द्वारा दूषित कर दी जाती है ॥४०॥
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