________________
चतुर्थ अध्याय
३३३ अधिमद्-~-मय्यात्मन्यधिकृत्य । तमनु-तेन सह । निरवबन्धं-अस्खलितम् । अवाचागोचरतया स्वैकसंवेद्यतया वा प्रसिद्ध स्थानम् । ईर्षे-गच्छसि । दिङ्मूढं-गुरूपदेशे दिक्षु च व्यामुग्धम् ।।१४७।।
अथैवमाकिञ्चन्यव्रतबद्धकक्षस्य भिक्षोः शिक्षामापाद्य पूर्वविभ्रमसंस्कारात्तत्र पुनः श्लथीभावावतार- ३ तिरस्काराय मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जन-लक्षणपञ्चभावनाप्रयोगपुरःसरं प्रयत्नमावर्णयति
विशेषार्थ-अकलंक देवने कहा है कि 'हमारा आत्मा' ऐसा जो ज्ञान हमें होता है वह संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और सम्यज्ञानमें से कोई भी होनेसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है । यह ज्ञान संशय तो है नहीं, क्योंकि निर्णय है। फिर भी यदि संशय है तब भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है क्योंकि संशयका विषय अवस्तु नहीं होती। यह ज्ञान अनध्यवसाय भी नहीं है, अनादि कालसे इस तरहका ज्ञान सबको होता आ रहा है। यदि यह विपरीत ज्ञान है तब भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे पुरुषमें स्थाणुका ज्ञान होनेपर स्थाणुकी सिद्धि होती है। यदि यह सम्यग्ज्ञान है तब तो आत्माकी सिद्धिमें कोई विवाद ही नहीं रहता। आचार्य विद्यानन्दने कहा है-आत्मा सदा बाधारहित स्वसंवेदनसे सिद्ध है । पृथ्वी आदि भूतोंकी पर्यायरूप चैतन्यविशिष्ट शरीररूप पुरुषमें स्वसंवेदन सम्भव नहीं है । 'यह नील है' इत्यादि ज्ञान स्वसंवेदन नहीं है क्योंकि वह तो बाह्य इन्द्रियोंसे होता है उसमें 'अहं' प्रत्यय नहीं होता। 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान उस प्रकारका नहीं है, इन दोनों ज्ञानोंका अन्तर स्पष्ट अनुभवमें आता है। 'मैं गौर हूँ' यह ज्ञान भी बाह्येन्द्रियसे उत्पन्न होनेसे उससे भिन्न है। शायद कहा जाये कि 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान भी उसीके समान है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस ज्ञानका आश्रय 'मैं' से भिन्न कोई दूसरा नहीं है । तथा सुखके सम्बन्धसे 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान होता है। सुखका सम्बन्ध किसके साथ है यह विचार करनेपर उसका आश्रय कोई कर्ता होना चाहिए, उसके अभावमें 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकार कर्ता में स्थित सुखका ज्ञान नहीं हो सकता। और वह कर्ता आत्मा ही हो सकता है क्योंकि वह शरीर, इन्द्रिय और विषय इन तीनोंसे विलक्षण है। और विलक्षण इसलिए है कि सुखादिका अनुभव उसे ही होता है। जो अनुभव करता है उसे ही सम आदि भी होता है । जो मैं सुखका अनुभव करता था वही मैं अब हर्षका अनुभव करता हूँ इस प्रकारका अनुसन्धान निर्बाध होता है । इसलिए हे मन, जिसमें यह अनुपचरित 'अहं' रूप ज्ञान होता है उसीके साथ सच्ची मित्रता करेगा तो उस स्थानको प्राप्त करेगा जो वचनातीत है । और यदि गुरुके उपदेशको भूलकर मार्गभ्रष्ट हो गया तो संसारके दुःखोंमें फंस जायेगा। लोकमें भी देखा जाता है कि जो मार्गपर नहीं चलता वह दिशा भूलकर जंगलमें जाकर फंस जाता है ॥१४७॥
__ इस प्रकार आकिंचन्यव्रतको दृढ़तासे पालन करने में तत्पर साधुको शिक्षा देनेके बाद, पूर्व गलत संस्कारवश साधु कहीं उसमें ढीला न पड़ जाये इस विचारसे इन्द्रियोंके प्रिय और अप्रिय विषयोंमें राग-द्वेषके त्यागरूप पाँच भावनाओंको भानेका उपदेश देते हैं
१. 'स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवजितात् ।
तस्य क्ष्मादिविवर्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः ॥ स्वसंवेदनमप्यस्य बहिःकरणवर्जनात् । अहंकारास्पदं स्पष्टमबाधमनुभूयते ।।-त, श्लो. वा., १९६-९७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org