________________
चतुर्थ अध्याय अथ मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्व-गुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु यथाक्रमं भावयतः सर्वाण्यपि व्रतानि परं दाढर्यमासादयन्तीति तद्भावनाचतुष्टये मुक्तिकामान् नियोक्तुमभिधत्ते
मा भूत्कोपोह दुःखी भजतु जगदसद्धम शर्मेति मैत्री
ज्यायो हृत्तेषु रज्यन्नयनमधिगुणेष्वेष्विवेति प्रमोदम् । दुःखाद्रक्षेयमार्तान् कथमिति करुणां ब्राह्मि मामेहि शिक्षा
काऽद्रव्येष्वित्युपेक्षामपि परमपदाभ्युद्यता भावयन्तु ॥१५१॥ ही होती है । इस विषयमें आचार्य विद्यानन्द स्वामीने अपने तत्त्वार्थ इलोकवार्तिकमें जो महत्त्वपूर्ण चर्चा की है उसे यहाँ दिया जाता है।
लिखा है-'केवलज्ञानकी उत्पत्तिसे पहले ही सम्पूर्ण यथाख्यात चारित्र उत्पन्न हो जाता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए । वह यथाख्यात चारित्र मुक्तिको उत्पन्न करने में सहकारी विशेषकी अपेक्षा रखता है अतः वह पूर्ण नहीं हो सकता। जो अपने विवक्षित कार्यको करने में अन्त्य क्षण अवस्थाको प्राप्त होता है वही सम्पूर्ण होता है । किन्तु केवलज्ञानको उत्पत्ति से पूर्वका चारित्र अन्त्य क्षण प्राप्त नहीं है क्योंकि केवलज्ञानके प्रकट होनेके भी पश्चात् अघातिकर्मोंका ध्वंस करने में समर्थ सामग्रीसे युक्त सम्पूर्ण चारित्रका उदय होता है। शायद कहा जाये कि ऐसा माननेसे 'यथाख्यात पूर्ण चारित्र है' इस आगमवचनमें बाधा आती है। किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि आगममें उसे क्षायिक होनेसे पूर्ण कहा है। समस्त मोहनीय कर्मके क्षयसे प्रकट होनेवाला चारित्र अंशरूपसे मलिन नहीं होता इसलिए उसे सदा निर्मल और आत्यन्तिक कहा जाता है। किन्तु वह चारित्र पूर्ण नहीं है । उसका विशिष्ट रूप बादमें प्रकट होता है । चारित्रका वह विशिष्ट रूप है नाम आदि तीन अघाति कर्मोंकी निर्जरा करने में समर्थ समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति ध्यान । वह ध्यान चौदहवें गुणस्थानमें ही होता है। अतः अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें ही चारित्र पूर्ण होता है। योगीके रहते चारित्र पूर्ण नहीं होता।
कहा भी है-'जो शीलके चौरासी हजार भेदोंके स्वामित्वको प्राप्त हैं, जिनके समस्त आस्रवोंका निरोध हो गया है तथा जो कर्मरजसे युक्त हो गये हैं ऐसे जीव अयोगकेवली होते हैं।'
और भी कहा है-'जिसका पुण्य और पाप बिना फल दिये स्वयं झड़ जाता है वह योगी है, उसका निर्वाण होता है, वह पुनः आस्रवसे युक्त नहीं होता।' ॥१५०।।
प्राणि मात्रमें मैत्री, गुणी जनोंमें प्रमोद, दुःखी जीवोंमें दया भाव, और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य भावका भावन करनेसे सभी व्रत अत्यन्त दृढ होते हैं। इसलिए इन चारों भावनाओंमें मुमुक्षुओंको नियुक्त करनेकी प्रेरणा करते हैं
___ इस लोकमें कोई प्राणी दुखी न हो, तथा जगत् पारमार्थिक सुखको प्राप्त करे, इस प्रकारकी भावनाको मैत्री कहते हैं । जैसे चक्षु सामने दिखाई देनेवाले गुणाधिकोंको देखकर अनुरागसे खिल उठती है वैसे ही सुदूरवर्ती और अतीतकाल में हुए सम्यग्ज्ञान आदि गुणोंसे उत्कृष्ट पुरुषोंको स्मरण करके रागसे द्रवित हुआ हृदय अत्यन्त प्रशंसनीय होता है इस प्रकार
१. प्रागेव क्षायिकं पूर्ण क्षायिकत्वेन केवलात् ।
न त्वघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतः ॥-त. श्लो. वा. १११८५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org