________________
धर्मामृत ( अनगार) 'विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीनं कुर्वतश्चेतः समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।। सिद्धान्तसूत्रविन्यासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा।
भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ॥ [ ज्ञानार्णव १८३१५-१६ ] अवाक्-मौनम् । तथा चोक्तम्
'साधुसंवृतवाग्वृत्तेौनारूढस्य वा मुनेः।
संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामतेः ॥' [ ज्ञानार्णव १८।१७ ] विशरेत्यादि-हिंसामैथुनस्तेयत्यागरूपाम् । अनीहाकायां-अचेष्टारूपम् ।
अपराजित सूरिकी विजयोदया टीकाके आधार पर उनका विवरण दिया जाता है'मनकी रागादि निवृत्तिको मनोगुप्ति कहते हैं । यहाँ 'मनकी गुप्ति' ऐसा जो कहा है तो क्या प्रवृत्त मनकी गुप्ति होती है या अप्रवृत्त मन की ? यदि मन शुभमें प्रवृत्त है तो उसकी रक्षा कैसी ? यदि मन अप्रवृत्त है तो भी उसकी रक्षा कैसी, रक्षा तो सत्की होती है असत्की नहीं । सत्को ही अपायसे बचाया जाता है। तथा यहाँ 'मन' शब्दसे द्रव्य मन लिया है, या भावमन ? यदि द्रव्यवर्गणारूप मन लिया है तो उसका अपाय क्या है जिससे उसको बचाकर उसकी रक्षा की जाये ? दूसरे, द्रव्य मन तो पुद्गल द्रव्य है उसकी रक्षा करनेसे जीवको क्या लाभ ? उसके निमित्तसे तो आत्माके परिणाम अशुभ होते हैं। अतः आत्माकी रक्षा उससे नहीं हो सकती । यदि नो इन्द्रिय-मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान मन शब्दसे लेते हैं तो उसका अपाय क्या? यदि अपायसे विनाश लेते हैं तो उससे तो बचाव संभव नहीं है क्योंकि ज्ञान तो विनाशशील है यह बात अनुभवसिद्ध है। यदि ऐसा न हो तो आत्माकी प्रवृत्ति सदा एक ही ज्ञानमें रही आये । ज्ञान तो लहरोंकी तरह उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं । उनके अविनाशका कोई उपाय नहीं है। तीसरे, मन इन्द्रियोंके द्वारा रूपादि विषयोंको ग्रहण करता है तो आत्मामें राग द्वेष उत्पन्न होते हैं। अतः 'मनकी रागादिसे निवृत्ति' ऐसा कहना ही उचित नहीं है। इस शंकाका समाधान करते हैं-यहाँ मन शब्दसे नो इन्द्रियमति ली गयी है । वह आत्मामें रागादि परिणामोंके साथ एक कालमें होती है । क्योंकि विषयोंके अवग्रह आदि ज्ञानके विना राग द्वेषमें प्रवृत्ति नहीं होती। और यह बात अनुभवसिद्ध है इसमें किसी अन्य युक्तिकी आवश्यकता नहीं है। किन्तु वस्तुतत्त्वके अनुरूप मानस ज्ञानके साथ राग द्वेष नहीं रहते, यह बात भी अनुभवसिद्ध है । अतः तत्वको जाननेवाले मनका रागादिके साथ नहीं होना ही मनोगप्ति है। यहाँ मनका ग्रहण ज्ञानका उपलक्षण है अतः रागद्वेषके कलंकसे रहित सभी ज्ञान मनोगुप्ति हैं। यदि ऐसा न माना जायगा तो इन्द्रिय जन्य मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मनःपर्यय ज्ञान रूप परिणत आत्माके मनोगप्ति नहीं हो सकेगी। किन्तु आगममें उनके भी मनोगप्ति मानी गयी है। अथवा जो आत्मा 'मनुते' अर्थात् जानता है, विचार करता है वही मन शब्दसे कहा जाता है। उसकी रागादिसे निवृत्ति या राग द्वेषरूपसे अपरिणति मनोगप्ति है । ऐसा कहनेसे सम्यक् योगनिग्रहको गुप्ति कहते हैं, ऐसा कहना भी विरुद्ध नहीं है। दृष्ट फलकी अपेक्षा न करके वीर्यपरिणाम रूप योगका निग्रह अर्थात् रागादि कार्य करनेका निरोध मनोगुप्ति है । विपरीत अर्थकी प्रतिपत्तिमें हेतु होनेसे और दूसरोंके दुःखकी उत्पत्तिमें निमित्त होनेसे अलीक आदि वचनोंसे निवृत्ति वचनगुप्ति है । शंका-वचन पौद्गलिक है। विपरीत अर्थकी प्रतिपत्तिमें हेतु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org