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चतुर्थ अध्याय
३५१ व्यवहृतिः-चेष्टा । उक्तं च
'कर्मद्वारोपरमणरतस्य तिस्रस्तु गुप्तयः सन्ति ।
चेष्टाविष्टस्य मुनेनिर्दिष्टाः समितयः पञ्च ।।' तत्सखी । अयमर्थः यथा नायकमाराधयितुकामस्य नायकस्यावसरमलभमानस्य तदनुकूलनार्थ तत्सखोनामाश्रयणं श्रेयस्तथा मुमुक्षोर्गुप्त्याराधनपरस्य समितीनां सखीत्वं, चासां नायिकाया इव गुप्तेः स्वभावाश्रयणात् । समितिषु हि गुप्तयो लभ्यन्ते न तु गुप्तिषु समितयः ॥१६२॥ अथ निरुक्तिगम्यं समितिसामान्यलक्षणं विशेषोद्देशसहितमाह
ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गलक्षणाः।
वृत्तयः पञ्च सूत्रोक्तयुक्त्या समितयो मताः॥१६३॥ समितयः-सम्यक्श्रुतनिरूपितक्रमेणेतिर्गतिवृत्तिः समितिः ॥१६३।। अथेर्यासमितिलक्षणमाह
विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जैसे कोई नायक किसी नायिकाकी आराधना करना चाहता है किन्तु अवसर नहीं पाता तो वह उस नायिकाको अपने अनुकूल करने के लिए उसकी सखियोंका सहारा लेता है यही उसके लिए श्रेयस्कर है। उसी तरह जो मुमुक्षु गुप्तिकी आराधना करना चाहता है उसे समितिका पालन करना चाहिए। क्योंकि समिति गुप्तिकी सखी है। यतः समिति गुप्ति के स्वभावका अनुसरण करती है अतः समितियों में तो गुप्तियाँ पायी जाती हैं किन्तु गुप्तियोंमें समितियाँ नहीं पायी जातीं। गुप्तियाँ निवृत्तिप्रधान होती हैं
और समितियाँ प्रवृत्तिप्रधान । इसीलिए जहाँ समितियोंको गुप्तियोंकी सखी कहा है वहाँ गुप्तियोंको मोक्षमार्गकी देवी कहा है। इस देवीके द्वारकी रक्षिका है चेष्टा। जैसे द्वार रक्षिका अपने स्वामीकी अवज्ञा करनेवालेको वहाँसे निकाल देती है वैसे ही जो मुनि शारीरिक व्यापार करना चाहता है वह गुप्तिके द्वारसे हटा दिया जाता है। किन्तु मुमुक्षु मुनि मोक्षकी देवी गुप्तिकी आराधना तो नहीं छोड़ना चाहता। अतः शारीरिक चेष्टा करते हुए भी उसे समितियोंका आलम्बन लेना पड़ता है । ऐसी स्थितिमें उसे पुनः गप्तियोंके पालनका अवसर मिलता है। यदि वह चेष्टा करते हुए भी समितियोंका पालन नहीं करता तो वह गुप्तियोंका पालन नहीं कर सकता और तब उसे मोक्षकी बात तो दूर, मोक्षमार्गकी भी प्राप्ति सम्भव नहीं है ।। कहा भी है-'कर्मोंके आनेके द्वारको बन्द करने में लीन साधुके तीन गुप्तियाँ कहीं हैं और शारीरिक चेष्टा करनेवाले मुनिके पाँच समितियाँ कही हैं' ॥१६२॥ ___आगे समितिके भेदोंका नाम निर्देशपूर्वक निरुक्तिपूर्वक सामान्य लक्षण कहते हैं
आगममें बताये हुए क्रमके अनुसार प्रवृत्तिरूप पाँच समितियाँ पूर्वाचार्योंने कही हैं। ईर्या अर्थात् गमन, भाषा अर्थात् वचन, एषणा अर्थात् भोजन, आदाननिक्षेप अर्थात् ग्रहण और स्थापन तथा उत्सर्ग अर्थात् त्यागना ये उनके लक्षण हैं ॥१६३।।।
विशेषार्थ-समिति शब्द सम् और इतिके मेलसे बनता है। 'सम' अर्थात् सम्यक् 'इति' अर्थात् गति या प्रवृत्तिको समिति कहते हैं। अर्थात् आगममें कहे हुए क्रमके अनुसार गमन आदि करना समिति है। साधुको जीवनयात्राके लिए पाँच आवश्यक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं-एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना, बोलना, भोजन, पीछी आदिका ग्रहण, स्थापन और मलमूत्रका त्याग । अतः पाँच ही समितियाँ कही हैं ॥१६३॥
ईर्यासमितिका लक्षण कहते हैं
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