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चतुर्थ अध्याय
३६३ तेषां त्यागा दश। अतिक्रमो व्यासंगात्संक्लेशाद्वा आगमोक्तकालादधिककाले आवश्यकादिकरणम् । व्यतिक्रमो विषयव्यासंगादिना हीनकाले क्रियाकरणम । अतिचारः क्रियाकरणालसत्वम । अनाचार मनाचरणं खण्डनं वा । तत्त्यागाश्चत्वारः । नास्ति ब्रह्म यासु ता अब्रह्मणः शीलविराधनाः । तद्यथा
'स्त्रीगोष्ठी वृष्यभुक्तिश्च गन्धमाल्यादिवासनम् । शयनासनमाकल्पः षष्ठं गन्धर्ववादितम् ॥ अर्थसंग्रहदुःशीलसंगती राजसेवनम् ।
रात्री संचरणं चेति दश शीलविराधनाः ॥ तद्वर्जना दश । तत्र चतुभिर्गुणिता एकविंशतिश्चतुरशीतिगुणा। स्युः । ते च शतेन हताश्चतुरशीतिशतानि स्युः । ते चाब्रह्मकारणत्यागैर्दशभिरभ्यस्ताश्चतुरशीति सहस्राणि स्युः। ते चाकम्पितादित्यागैर्दशभिराहताश्चत्वारिंशत्सहस्राभ्यधिकान्यष्टौ लक्षाणि स्युः। ते चालोचनादिप्रायश्चित्तभेदैदशभिस्ताडिताश्चतुरशीतिलक्षसंख्या गुणाः स्युः । तथा चोक्तम्
'इगवोसचदुरसदिया दस दस दसगा य आणुपुव्वीए ।
हिंसादिक्कमकाया विराहणा लोचणा सोही॥' [ मूलाचार, १०२३ गा. ] करना व्यतिक्रम है। व्रत आदिका आचरण नहीं करना या दोष लगाना अनाचार है। और क्रिया करने में आलस्य करना अतिचार है। इन चारोंके त्यागसे चार भेद होते हैं। अब्रह्म कहते हैं शीलकी विराधना करने को । वे इस प्रकार हैं
स्त्रियोंकी संगति, इन्द्रिय मदकारक भोजन, गन्ध-माला आदिसे शरीरको सुवासित करना, शय्या और आसनकी रचना, गाना-बजाना आदि, धनका संग्रह, कुशील पुरुषोंकी संगति, राजसेवा और रात्रिमें विचरण ये दस शीलविराधना हैं। इनके त्यागसे दस भेद होते हैं। हिंसा आदिके त्याग सम्बन्धी इक्कीस भेदोंको अतिक्रम आदिके त्यागरूप चार भेदोंसे गुणा करनेपर चौरासी भेद होते हैं। उन्हें उक्त सौ भेदोंसे गुणा करनेपर चौरासी सौ भेद होते हैं । उन्हें अब्रह्मके कारणोंके त्यागरूप दस भेदोंसे गुणा करनेपर चौरासी हजार भेद होते हैं। उन्हें आकम्पित आदिके त्यागरूप दस भेदोंसे गुणा करनेपर आठ लाख चालीस हजार भेद होते हैं। उन्हें प्रायश्चित्तके आलोचन आदि दस भेदोंसे गणा करनेपर चौरासी लाख भेद होते हैं। मूलाचारमें कहा है-हिंसा आदि इक्कीस, अतिक्रम आदि चार, काय आदि दस, शील विराधना दस, आलोचना दोष दस, प्रायश्चित्त दस तरह इन सबकी शुद्धिके मेलसे २१४४४१०४ १०x१०x१० चौरासी लाख भेद होते हैं । इनके उत्पादनका क्रम इस प्रकार है
'हिंसासे विरत, अतिक्रम दोषके करनेसे विरत, पृथ्वीमें पृथिवीकायिक जीव सम्बन्धी आरम्भसे सुसंयत, स्त्रीसंसर्गसे रहित, आकम्पित दोषके करनेसे उन्मुक्त और आलोचना प्रायश्चित्तसे युक्त मुनिके पहला गुण होता है। शेष गुण भी इसी प्रकार जानने चाहिए ।
१. पाणादिवादविरदे अदिकमणदोसकरण उम्मुक्के ।
'पुढवीए पुढवीपुणरारंभसुसंजदे धीरे ॥ इत्थीसंसग्गविजुदे आकंपिय दोसकरण उम्मुक्के । आलोयणसोधिजुदे आदिगुणो सेसया णेया ॥'-मूलाचार १०३२-३३ गा.।
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