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चतुर्थ अध्याय शीलं ब्रूयात् । तिस्रो गुप्तीः पत्याकारेण व्यवस्थाप्योवं त्रीणि करणानि तथैव व्यवस्थाप्यानि ततश्चतस्रः संज्ञास्ततः पञ्चेन्द्रियाणि ततः पृथिव्यादयो दश, ततश्च दश धर्माः, एवं संस्थाप्य पूर्वोक्तक्रमेण शेषाणि शीलानि वक्तव्यानि । यावत् सर्वे अक्षा अचलं स्थित्वा विशुद्धा भवन्ति तावदष्टादशशीलसहस्राणि आगच्छन्तीति ॥१७२॥ ३
सम्बन्धसे होते हैं। इसी तरह शेष तीन संज्ञाओंमें से प्रत्येकके सम्बन्धसे पाँचसौ भेद होनेसे दो हजार भेद होते हैं। ये दो हजार भेद मन सम्बन्धी होते हैं। इसी तरह वचन और काय योगके भी इतने ही भेद होनेसे छह हजार भेद होते हैं। ये छह हजार भेद 'कृत'के हैं कारित और अनुमतिके भी छह-छह हजार भेद होनेसे अठारह हजार भेद होते हैं । शंकाये भंग तो एकसंयोगी हैं। दो आदिके संयोगसे मिलानेपर तो बहुत भेद होंगे। तब अठारह हजार भेद ही क्यों कहे ? समाधान-यदि श्रावक धर्मकी तरह किसी एक भंगसे सर्वविरति होती तो वैसा सम्भव था। किन्तु यहाँ शीलका प्रत्येक भेद सब भंगोंके योगसे ही होता है उसके विना सर्वविरति सम्भव नहीं है इसलिए अठारह हजार ही भेद होते हैं।
शीलोंकी स्थापनाका क्रम इस प्रकार है
क्षमा
| मार्दव । आर्जव | शौच । सत्य | संयम
।
तप
त्याग
आकिं. | ब्रह्मचर्य
।
२
तेज
प्रत्ये. ४०
अप्
सा.
पृथ्वी
दोइ. ६०
तेइन्द्रि .
चौइ. पंचेन्द्रिय
श्री.
स्प.
१००
। २०० । ३००
४००
भय
आहार
. १०००
परि. १५००
५००
मनक
वाक्क २०००
कायक. ४०००
म. गु.
व. गु. का. गु. ६००० | १२०००
इस तरह दोनोंकी प्रक्रियामें भेद है । यद्यपि पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें जो श्लोक उद्धृत किया है 'योगे करणसंज्ञाक्षे' आदि और पंचाशककी गाथा 'जोए करणे सण्णा' में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। 'करण' से श्वेताम्बर परम्परामें करना-कराना और अनुमति ये तीन लिये जाते हैं और प्रत्येकके छह हजार भेद होनेसे अठारह हजार भेद हैं। आशाधरजीने इसके स्थानमें तीन अशुभयोग निवृत्ति ली है। भावपाहुड गा. ११८ की टीका में श्रुतसागर सूरिने आशाधरजीके अनुसार ही शीलके अठारह हजार भेद कहे हैं ॥१७२॥
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