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पंचम अध्याय
अथाहारमात्रां निर्दिश्यातिमात्र संज्ञदोषमाह - सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमंशमुदरस्य ।
भृत्वाऽभृतस्तुरीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमलः ॥ ३८ ॥ व्यञ्जनं - सूपशालनादि । तुरीयः - चतुर्थः कुक्षिभागः ।
उक्तं च
'अन्नेन कुक्षेर्द्वावंशी पानेनैकं प्रपूरयेत् । आश्रयं पवनादीनां चतुर्थं मवशेषयेत् ॥'
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दोषत्वं चात्र स्वाध्यायावश्यकक्षति-निद्रालस्याद्युद्भवज्वरादिव्याधिसंभवदर्शनात् ॥ ३८ ॥
होता है । इसी तरह - रोगरूपी अग्निसे जलता हुआ साधु प्रासुक भी आहारको खाकर चारित्ररूप ईंधनको शीघ्र ही जले हुए अंगारके समान करता है और द्वेषरूप अग्निसे जलता हुआ साधु अप्रीतिरूपी धूमसे युक्त चारित्ररूपी ईंधनको तबतक जलाता है जबतक वह अंगारके समान नहीं होता । अतः रागसे ग्रस्त मुनिका भोजन अंगार है क्योंकि वह चारित्ररूपी ईंधन के लिए अंगार तुल्य है । और द्वेषसे युक्त साधुका भोजन सधूम है, क्योंकि वह भोजन के प्रति निन्दात्मक कलुषभावरूप धूमसे मिश्रित है ||३७||
आगे आहारके परिमाणका निर्देश करके अतिमात्र नामक दोषको कहते हैं
साधुको उदरके दो भाग दाल शाक सहित भात आदिसे भरना चाहिए और उदरका एक भाग जल आदि पेयसे भरना चाहिए। तथा चौथा भाग खाली रखना चाहिए । इसका ' उल्लंघन करनेपर प्रमाण नामक दोष होता है ||३८||
विशेषार्थ - आगम में भोजनकी मात्रा इस प्रकार कही है - पुरुषके आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रास है और स्त्रीके आहारका प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है । इतनेसे उनका पेट भर जाता है । इससे अधिक आहार करनेपर प्रमाण नामक दोष होता है । पिण्डनिर्युक्तिमें उदरके छह भाग किये हैं । उसका आधा अर्थात् तीन भाग उदर तो व्यंजन सहित अन्नसे भरना चाहिए । दो भाग पानीसे और छठा भाग वायुके संचारके लिए खाली रखना चाहिए। ऊपर उदर के चार भाग करके एक चतुर्थांश उदरको खाली रखनेका विधान किया है । कालकी अपेक्षा इसमें परिवर्तन करनेका विधान पिण्डनिर्युक्ति में है। तीन काल हैं- शीत, उष्ण और साधारण । अति शीतकाल में पानीका एक भाग और भोजनके चार भाग कल्पनीय हैं। मध्यम शीतकालमें पानी के दो भाग और तीन भाग भोजन ग्राह्य है । मध्यम उष्ण कालमें भी दो भाग पानी और तीन भाग भोजन कल्पनीय है । अति उष्ण कालमें तीन भाग पानी और दो भाग भोजन ग्राह्य है । सर्वत्र छठा भाग वायु संचारके लिए रखना उचित है ||३८||
१. आश्रमं भ. कु. च. ।
२. रागग्गिसंपलित्तो भुंजतो फासूयं पि आहारं ।
निद्दड्ढंगालनिभं करेइ चरणिधणं खिप्पं ॥
दोसग्गिवि जलंतो अप्पत्तिय धूमधूमियं चरणं ।
अंगारमित्त सरिसं जा न हवई निद्दही ताव ॥ - पिण्डनि ६५७-६५८ ।
३. बत्तीस किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई ।
पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला ॥ भग. आ. २१२ गा., पिण्ड नि., गा. ६४२ । ५१
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