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पंचम अध्याय
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प्रासु-स्वरूपेण प्रासुकमपि वस्तु पूति अप्रासुमिश्रम् । अयमाद्यः पूतिभेदः । इदं कृतं-अनेन चुल्ल्यादिना अस्मिन् वा साधितं इदं भोजनगन्धादि । तथाहि-अस्यां चुल्ल्यां भोजनादिकं निष्पाद्य यावत् साधुभ्यो न दत्तं तावदात्मन्यन्यत्र वा नोपयोक्तव्यमिति पूतिकर्मकल्पनाप्रभव एकः पूतिदोषः। एवमुदूखलदर्वीपात्रशिलास्वपि कल्पनया चत्वारोऽन्येऽभ्यूह्या । उक्तं च
'मिश्रमप्रासुना प्रासु द्रव्यं पूतिकमिष्यते।
चुल्लिकोदुखलं दर्वीपात्रगन्धौ च पञ्चधा ॥[ ] गन्धोऽत्र शिला । इदं चेति टीकामतसंग्रहार्थमुक्तम् । तथाहि'यावदिदं भोजनं गन्धो वा ऋषिभ्यो नादायि न तावदात्मन्यन्यत्र वा कल्पते' । उक्तं च
'अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूतिकम्मं तु ।
चुल्ली य उखुली दव्वी भोयणगंधत्ति पंचविहं ॥' [ मूलाचार ४२८ गा. ] ॥९॥ अथ मिश्रदोषं लक्षयति
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बनाया गया यह भोजन जबतक साधुको न दिया जाये तबतक कोई इसका उपयोग न करे, यह कल्पित नामका दूसरा पूति दोष है ॥९॥
विशेषार्थ-मूलाचारकी संस्कृत टीकामें इस दोषका स्वरूप इस प्रकार कहा हैअप्रासुक अर्थात् सचित्त आदिसे मिला हुआ आहार आदि पूति दोष है। उसके पाँच भेद हैं-चूल्हा, ओखली, दर्वी, भाजन और गन्ध । चूल्हे पर भात वगैरह पकाकर पहले साधुओंको दूंगा पीछे दूसरोंको, ऐसा संकल्प करनेसे प्रासुक भी द्रव्य पूति कर्मसे निष्पन्न होनेसे पूति दोषसे युक्त कहा जाता है। इसी तरह इस ओखलीमें कूटकर अन्न जबतक ऋषियोंको नहीं दूंगा तबतक न मैं स्वयं लूँगा न दूसरोंको दूंगा। इस प्रकार निष्पन्न प्रासुक भी द्रव्य पूति कहाता है। तथा इस करछुलसे निष्पन्न द्रव्य जबतक यतियोंको नहीं दूंगा तबतक यह न मेरे योग्य है न दूसरोंके, यह भी पूति दोष है। तथा इस भाजनसे निष्पन्न द्रव्य जबतक ऋषियोंको नहीं दूंगा तबतक न अपने योग्य है न दूसरोंके, वह भी पूति दोष है। तथा यह गन्ध जबतक भोजनपूर्वक ऋषियोंको न दी जाये तबतक न मैं लूँगा न दूसरोंको दूँगा, इस प्रकारके हेतुसे निष्पन्न भात वगैरह पूति कर्म है।
श्वे. पिण्डनियुक्तिमें पूतिकर्मके द्रव्य और भावसे दो भेद किये हैं । जो द्रव्य स्वभावसे गन्ध आदि गुणसे युक्त है, पीछे यदि वह अशुचि गन्धवाले द्रव्यसे युक्त हो तो उसे द्रव्य पूति कहते हैं। चूल्हा, ओखली, बड़ी करछुल, छोटी करछुल ये यदि अधःकर्म दोषसे युक्त हों तो इनसे मिश्रित भोजन शुद्ध होनेपर भी पूति दोषसे युक्त होता है। यह भाव पूति है। इत्यादि विस्तृत कथन है ॥९॥
मिश्र दोषका लक्षण कहते हैं
१. इदं वेत्याचारटी-भ. कु. च. । २. 'अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्यं तु पूतिकम्मं तु ।
चुल्लि उक्खली दव्वी भायणगंधत्ति पंचविहं' ॥ --पिण्डशुद्ध, ९ गा.।
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