________________
३५८
धर्मामृत ( अनगार) 'अजदाचारो समणो छस्सुवि काएसु बंधगोत्ति मदो।
चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले निरुवलेवो ।'[प्रवचनसार, ३।१८ गा.।] द्वयानि-महान्त्यणूनि च । तथा चोक्तं वर्गणाखण्डस्य बन्धनाधिकारे
'संजमविरईणं को भेदो? ससमिदि महन्वयाणुव्वयाइ संजमो। ससिदीह विणा महव्वयाणुव्वयाई विरदी।' इति ॥ [ धवला पु. १४, पृ. १२ ]
उद्भान्ति-उद्भासन्ते । समितिषु गुप्तिसद्भावस्य प्राग् व्याख्यातत्वात् । नित्यं-गुप्तिकालादन्यदा। . इत्या गम्था: सेव्या इत्यर्थः ॥१७॥ ___ अथ शीलस्य लक्षणं विशेषांश्चोपदिशन्नुपेयत्वमभिधत्ते
शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् ।
संज्ञाक्षविरतिरोधी क्ष्मादियममलात्ययं क्षमादोश्च ॥१७२॥ विशेषार्थ-समितियोंका मूल्यांकन करते हुए उनकी चार विशेषताओंका कथन किया है। प्रथम, जैसे कमल जलमें रहते हुए भी अणुमात्र भी जलसे लिप्त नहीं होता वैसे ही समितियोंका पालक साधु कदाचित् दैववश प्राणिघात हो जानेपर भी किंचित् भी पापसे लिप्त नहीं होता। प्रवचनसारमें कहा है-'ईर्यासमितिसे चलनेवाले साधुके पैर उठानेपर उनके चलनेके स्थानपर यदि कोई क्षुद्र जन्तु आ पड़े और उनके पैरके सम्बन्धसे कुचलकर मर भी जाये तो उस साधुको उस हिंसाके निमित्तसे सूक्ष्म-सा भी बन्ध आगममें नहीं कहा . है। क्योंकि साधु समितिमें सावधान है उसके मनमें हिंसाका लेश भी भाव नहीं है । दूसरे, जो समितिमें सावधान नहीं होता उसके द्वारा किसीका घात नहीं होनेपर भी पापबन्ध होता है।' कहा है
'अयत्नाचारी श्रमण छहों कायोंमें बन्धका करनेवाला माना गया है। यदि वह सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है जो जलमें कमलकी तरह सदा निरुपलेप बन्धरहित है।' तीसरे, संयमका सम्बन्ध समितिके साथ है । समितिके बिना संयमपदपर आरोहण सम्भव नहीं है अतः समितिके पालनसे ही अणुव्रत और महाव्रत शोभित होते हैं। उसके बिना नहीं। पट्खण्डागमके अन्तर्गत वर्गणा खण्डके बन्धन अनुयोगद्वारकी धवलाटीकामें कहा है--
_ 'संयम और विरतिमें क्या भेद है ? समितिके साथ महाव्रत अणुव्रतोंको संयम कहते हैं । और समितिके बिना महाव्रतों और अणुव्रतोंको विरति कहते हैं । अतः समितियोंका पालन अणुव्रती गृहस्थके लिए भी आवश्यक है। चौथे, समितिके योगसे ही गुप्तियाँ दीप्त होती है क्योंकि समितियोंमें भी गुप्तिका सद्भाव है यह पहले बतलाया है। यहाँ समितियोंको सदा पालन करनेका निर्देश किया है। इसका अभिप्राय इतना ही है कि गुप्तियोंके पालनसे अतिरिक्त समयमें समितियोंका पालन करना चाहिए ॥१७१।।
इस प्रकार समितिका प्रकरण समाप्त हुआ। अब शीलका लक्षण और भेदोंका कथन करते हुए उसकी उपादेयता बतलाते हैं
जिसके द्वारा व्रतोंकी रक्षा होती है उसे शील कहते हैं। पुण्यात्रवमें निमित्त मन-वचन-कायकी परिणति, तीन अशुभ योगोंसे निवृत्ति, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहकी अभिलाषारूप चार संज्ञाओंसे निवृत्ति, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियोंका निरोध, पृथ्वीकायिक आदि दस प्रकारके जीवोंके प्राणोंके घातसे निवृत्तिरूप दस यमोंके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org