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चतुर्थ अध्याय
३४७
तदुक्तम्
'स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यवं संश्रितस्य वा।
परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुनेः ॥' [ ज्ञानार्णव १८१८] अपि च-.
'कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिः समुद्दिष्टा ॥' [ समदृक्-समं सर्वं हेयमुपादेयं च तत्त्वेन पश्यन् जीवितमरणादौ वा समबुद्धिः ॥१५६।।
होना आदि वचनका धर्म है उससे संवर नहीं हो सकता क्योंकि वचन आत्माका धर्म नहीं है । समाधान-तो फिर व्यलीक अर्थात् कठोर, आत्मप्रशंसारूप, परनिन्दारूप दूसरोंमें उपद्रव करानेवाले वचनसे व्यावृत्ति वचनगुप्ति है अर्थात् इस प्रकारके वचनोंमें आत्माको प्रवृत्त न करनेवाली वचनगुप्ति है। जिस वचनमें प्रवृत्ति करनेसे आत्मा अशुभ कर्मका आस्रव करता है उस वचनमें प्रवृत्त न होना वचनगुप्ति है । अथवा समस्त प्रकारके वचनोंका परिहार करके मौन रहना वचनगुप्ति है । अयोग्य वचन न बोलना, विचार पूर्वक योग्य वचन भी बोलना या नहीं बोलना वचनगप्ति है। और योग्य वचन बोलना ही भाषा समिति है। इस तरह गुप्ति और समितिमें बहुत भेद है । मौन वचन गुप्ति है ऐसा कहनेसे दोनोंका अन्तर स्पष्ट हो जाता है। औदारिक आदि शरीरकी जो क्रिया है उससे निवृत्ति शरीरगुप्ति है । शंका-बैठना, खड़े होना, सोना आदि क्रियाएँ हैं। और क्रिया आत्माकी प्रवर्तक है । तब कैसे आत्मा क्रियाओंसे व्यावृत्त हो सकता है। यदि कहोगे कि शरीरकी पर्याय क्रिया है, और आत्मा शरीरसे भिन्न पदार्थ है अतः अन्य द्रव्यकी पर्यायसे उस पर्यायसे शून्य अन्य द्रव्य व्यावृत्त होता है इसलिए ही आत्माको शरीर क्रियासे निवृत्त कहते हैं तब तो सभी आत्माआक कायगुप्तिका प्रसंग आता है किन्तु वह मान्य नहीं है। समाधान-काय शब्दस काय सम्बन्धी क्रिया ली जाती है। उसकी कारणभूत आत्माकी क्रियाको कायक्रिया कहते हैं । उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है । अथवा कायोत्सर्ग अर्थात् शरीरकी अपवित्रता असारता और विपत्तिका मूल कारण जानकर उससे ममत्व न करना कायगुप्ति है। यदि कायोत्सर्गका अर्थ कायका त्याग लिया जाता है तो शरीर तो आयुकी सांकलसे बँधा है उसका त्याग शक्य नहीं हो सकता । अथवा यहाँ गुप्तिका अर्थ निवृत्ति लेना चाहिए, यदि ऐसा न होता तो गाथाकार कायक्रियाकी निवृत्तिको शरीरगुप्ति न कहते । कायोत्सर्गसे निश्चलता कही जाती है । शंका-यदि ऐसा है तो 'कायक्रियानिवृत्ति' न कहकर 'कायोत्सर्ग कायगुप्ति है' इतना ही कहना चाहिए। समाधान नहीं, क्योंकि कायके विषयमें 'यह मेरा है' इस भावसे रहितपनेकी अपेक्षासे कायोत्सर्ग शब्दकी प्रवृत्ति हुई है। यदि कायक्रियानिवृत्तिको कायगुप्ति नहीं कहेंगे तो दौड़ने, चलने, लाँघने आदि क्रियाओंको करनेवालेके भी कायगुप्ति माननी होगी। किन्तु ऐसी मान्यता नहीं है। और यदि कायक्रियानिवृत्तिको ही कायगुप्ति कहा जाता है तो मूर्छित व्यक्तिके भी वैसा पाया जाता है इसलिए उसके भी कायगुप्ति हो जायगी । इसलिए व्यभिचारकी निवृत्तिके लिए दोनोंका ही ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् कर्मों के ग्रहणमें निमित्त समस्त क्रियाओंकी निवृत्तिको अथवा काय विषयक ममत्वके त्यागको कायगुप्ति कहते हैं । अथवा प्राणीके प्राणोंका घात, विना दी हुई वस्तुका ग्रहण, मैथुन,
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