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धर्मामृत ( अनगार) _ अथ कामिन्याः कटाक्षनिरीक्षणद्वारेण तत्क्षणान्नरहृदये स्वरूपाभिव्यक्तिकर्तृत्वशक्ति विदग्धोक्त्या प्रकटयति
हृद्यभिव्यञ्जती सद्यः स्वं पुंसोऽपाङ्गवलिगतैः ।
सत्कार्यवादमाहत्य कान्ता सत्यापयत्यहो ॥८१॥ सत्कार्यवादं
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥' [ साख्यका. ९] इति सांख्यमतम् । आहत्य-हठात् न प्रमाणबलात् । सत्यापयति-सत्यं करोति । अहो९ कष्टमाश्चयं वा ।।८१॥
अथ कामिनीकटाक्षनिरीक्षणपराणां युक्तायुक्तविवेचनशून्यता प्रभूतां भवानुबन्धिनी वक्रमणित्योपपादयति१२
नूनं नृणां हृदि जवान्निपतन्नपाङ्गः - स्त्रीणां विषं वमति किञ्चिदचिन्त्यशक्ति । नो चेत्कथं गलितसद्गुरुवाक्यमन्त्रा
जन्मान्तरेष्वपि चकास्ति न चेतनान्तः ॥८२॥ गलितः--प्रच्युतो भ्रष्टप्रभावो वा जातः ॥८२।।
कटाक्ष निरीक्षणके द्वारा तत्काल ही मनुष्यके हृदयमें अपने स्वरूपको अभिव्यक्त करनेकी शक्ति कामिनीमें है यह बात विदग्धोक्तिके द्वारा बतलाते हैं
यह बड़ा खेद अथवा आश्चर्य है कि अपने नेत्रोंके कटाक्षोंके द्वारा पुरुषके हृदयमें अपनेको अभिव्यक्त करती हुई कामिनी बिना प्रमाणके ही बलपूर्वक सांख्यके सत्कार्यवादको सत्य सिद्ध करती है ।।८१॥
विशेषार्थ-सांख्यदर्शन कार्यकी उत्पत्ति और विनाश नहीं मानता, आविर्भाव और तिरोभाव मानता है। उसका मत है कि कारणमें कार्य पहलेसे ही वर्तमान रहता है, बाह्य सामग्री उसे व्यक्त करती है। उसका कहना है कि असत्की उत्पत्ति नहीं होती, कार्यके लिए उसके उपादानको ही ग्रहण किया जाता है जैसे घटके लिए मिट्टी ही ली जाती है, सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं होती, निश्चित कारणसे ही निश्चित कार्यकी उत्पत्ति होती है, जो कारण जिस कार्यको करने में समर्थ होता है वह अपने शक्य कार्यको ही करता है तथा कारणपना भी तभी बनता है जब कार्य सद्रूप है अतः कार्य सद्रप ही है। इसी सिद्धान्तको लेकर ग्रन्थकार कहते हैं-कामी मनुष्य स्त्रीको देखते ही उसके ध्यान में तन्मय हो जाता है इससे सांख्यका सत्कार्यवाद बिना युक्ति के भी स्त्री सिद्ध कर देती है ॥८॥
जो मनुष्य कामिनियोंके कटाक्षका निरीक्षण करने में तत्पर रहते हैं वे अनेक भवों तक युक्तायुक्तके विचारसे शून्य हो जाते हैं यह बात वक्रोक्तिके द्वारा कहते हैं
मैं ऐसा मानता हूँ कि मनुष्योंके हृदयमें चक्षुके द्वारा प्रतिफलित स्त्रियोंका कटाक्ष एक अलौकिक विषको उगलता है जिसकी शक्ति विचारसे परे है। यदि ऐसा न होता तो उसी भवमें ही नहीं, किन्तु अन्य भवोंमें भी उसमें चेतनाका विकास क्यों नहीं होता और क्यों सद्गुरुओंके वचनरूपी मन्त्र अपना प्रभाव नहीं डालते ॥८२।।
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